- अरुण मिश्र
( टिप्पणी : अपने शह्र लखनऊ को समर्पित, अक्तूबर २००२ में लिखी यह ग़ज़ल, इसके प्रसिद्ध बाज़ार हज़रतगंज के २०० वर्ष पूरे होने के मौके पर ब्लागार्पित कर रहा हूँ | इसके एक अंश को स्वर देने के लिए उस्ताद जमील रामपुरी साहब का आभारी हूँ | फोटोग्राफ्स गूगल सर्च एवं टाइम्स ऑफ़ इंडिया से साभार| )
: किस क़दर होती गुलाबी है अबीरे-लखनऊ : |
ऐ ! अवध की खान के शफ़्फ़ाफ़ हीरे , लखनऊ।
बेशक़ीमत इल्मो - फ़न के , ऐ ज़ख़ीरे , लखनऊ।।
बज़्मे-तहज़ीबो-अदब के जल्वों पे हो के निसार।
हम हुये शैदाई तेरे , धीरे - धीरे लखनऊ।।
चार - सू चर्चा में है , योरोप से ईरान तक।
लज़्ज़ते - शीरीं - जु़बानी , औ’ ज़मीरे - लखनऊ।।
लच्क्षिमन जी ने किया आ कर के बिसरामो-क़याम।
कुछ तो ऐसा है, तिरे नदिया के तीरे, लखनऊ।।
गोमती के उफ़क पर , देखे कोई , शामे - अवध।
किस क़दर होती गुलाबी है , अबीरे - लखनऊ।।
है छटा दिलकश तिरी, है हुस्न तेरा दिल-पिज़ीर।
हार कर दिल , हम रहे हो कर असीरे - लखनऊ।।
हिन्द के इस बाग़ में , शहों के हैं ढेरों शजऱ।
कुछ अलग , कुछ ख़ास है , उनमें समीरे-लखनऊ।।
लखनऊ को देख फिर , कोई नगर क्यूँ देखिये?
तेरे दावे में सच्चाई है , सफ़ीरे - लखनऊ।।
तुम ‘अरुन’ की शान को, कुछ कम न करके आँकियो।
ऐ ! अमीरे - लखनऊ , हम भी हैं ‘मीरे’ - लखनऊ।।
*
बज़्मे-तहज़ीबो-अदब के जल्वों पे हो के निसार।
हम हुये शैदाई तेरे , धीरे - धीरे लखनऊ।।
चार - सू चर्चा में है , योरोप से ईरान तक।
लज़्ज़ते - शीरीं - जु़बानी , औ’ ज़मीरे - लखनऊ।।
लच्क्षिमन जी ने किया आ कर के बिसरामो-क़याम।
कुछ तो ऐसा है, तिरे नदिया के तीरे, लखनऊ।।
गोमती के उफ़क पर , देखे कोई , शामे - अवध।
किस क़दर होती गुलाबी है , अबीरे - लखनऊ।।
है छटा दिलकश तिरी, है हुस्न तेरा दिल-पिज़ीर।
हार कर दिल , हम रहे हो कर असीरे - लखनऊ।।
हिन्द के इस बाग़ में , शहों के हैं ढेरों शजऱ।
कुछ अलग , कुछ ख़ास है , उनमें समीरे-लखनऊ।।
लखनऊ को देख फिर , कोई नगर क्यूँ देखिये?
तेरे दावे में सच्चाई है , सफ़ीरे - लखनऊ।।
तुम ‘अरुन’ की शान को, कुछ कम न करके आँकियो।
ऐ ! अमीरे - लखनऊ , हम भी हैं ‘मीरे’ - लखनऊ।।
*