सहितमहाहव मल्लमतल्लिक मल्लितरल्लक मल्लरते –
एक विशाल रूप से आयोजित महासत्र (महायज्ञ) की भांति ही रहे घोर युद्ध में, 

फूल-सी कोमल किन्तु रण-कुशल साहसी स्त्री-योद्धाओं सहित जो संग्राम में रत हैं और
विरचितवल्लिक पल्लिकमल्लिक झिल्लिकभिल्लिक वर्गवृते –
भील स्त्रियों ने झींगुरों के झुण्ड की भांति जिन्हें घेर रखा है, जो उत्साह और उल्लास से भरी 

हुई हैं और
शितकृतफुल्ल समुल्लसितारुण तल्लजपल्लव सल्ललिते –
जिनके उल्लास की लालिमा से (प्रभातकालीन अरुणिमा की भांति) अतीव सुन्दर-सुकोमल 

कलियां पूरी तरह खिल खिल उठती हैं, ऐसी हे लावण्यमयी देवी,
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते –
हे महिषासुर का घात करने वाली, हे सुन्दर जटाधरी गिरिजा, तुम्हारी जय हो, जय हो !



अविरलगण्ड गलन्मदमेदुर मत्तमतङ्ग जराजपते –
कर्ण-प्रदेश या कनपटी से सतत झरते हुए गाढ़े मद की मादकता से मदोन्मत्त हुए 

हाथी-सी (उत्तेजित), हे गजेश्वरी,
त्रिभुवनभुषण भूतकलानिधि रूपपयोनिधि राजसुते –
हे त्रिलोक की भूषण यानि शोभा, सभी भूत यानि प्राणियों, चाहे वे दिव्य हों या मानव या 

दानव, की कला का आशय, रूप-सौंदर्य का सागर, हे (पर्वत) राजपुत्री,
अयि सुदतीजन लालसमानस मोहन मन्मथराजसुते –
हे सुन्दर दन्तपंक्ति वाली, सुंदरियों को पाने के लिए मन में लालसा और अभिलाषा उपजाने 

वाली तथा कामना जगाने वाली, मन को मथने वाले हे कामदेव की पुत्री (के समान),
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते –
हे महिषासुर का घात करने वाली सुन्दर जटाधरी गिरिजा! तुम्हारी जय हो, जय हो !



कमलदलामल कोमलकान्ति कलाकलितामल भाललते –
कमल के फूल की निर्मल पंखुड़ी की सुकुमार, उज्जवल आभा से सुशोभित (कान्तिमती) है 

भाल-लता जिनकी, ऐसी हे देवी,
सकलविलास कलानिलयक्रम केलिचलत्कल हंसकुले –
जिनकी ललित चेष्टाओं में, पग-संचरण, में कला-विन्यास है, जो कला का आवास है, 

जिनकी चाल-ढाल में राजहंसों की सी सौम्य गरिमा है,
अलिकुलसंकुल कुवलयमण्डल मौलिमिलद्बकुलालिकुले –
जिनकी वेणी में, भ्रमरावली से आवृत कुमुदिनी के फूल और बकुल के भंवरों से घिरे फूल 

एक साथ गुम्फित हैं,
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते –
ऐसी हे महिषासुर का घात करने वाली, सुन्दर जटाधरी, हे गिरिराज पुत्री, तुम्हारी जय हो, जय हो !

करमुरलीरव वीजितकूजित लज्जितकोकिल मञ्जुमते –
जिनकी करगत मुरली से निकल कर बहते स्वर से कोकिल-कूजन लज्जित हो जाता है, 

ऐसी हे माधुर्यमयी तथा
मिलितपुलिन्द मनोहरगुंजित रंजितशैल निकुंजगते –
जो पर्वतीय जनों द्वारा मिल कर गाये जाने वाले, मिठास भरे, गीतों से गुंजित रंगीन 

पहाड़ी निकुंजों में विचरण करती हैं, वे और
निजगणभूत महाशबरीगण सद्गुणसम्भृत केलितले –
अपने सद्गुणसम्पन्न गणों व वन्य प्रदेश में रहने वाले, शबरी आदि जाति के लोगों के साथ 

जो पहाड़ी वनों में क्रीड़ा (आमोद-प्रमोद) करती हैं,
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते –
ऐसी हे महिषासुर का घात करने वाली, सुंदर जटाधरी गिरिजा, तुम्हारी जय हो, जय हो !



कटितटपीत दुकूलविचित्र मयूखतिरस्कृत चन्द्ररुचे –
जिन रेशमी वस्त्रों से फूटती किरणों के आगे चन्द्रमा की ज्योति कुछ भी नहीं है, 

ऐसे दुकूल (रेशमी परिधान) से जिनका कटि-प्रदेश आवृत है और
प्रणतसुरासुर मौलिमणिस्फुर दंशुलसन्नख चन्द्ररुचे –
जिनके पद-नख चन्द्र-से चमक रहे हैं उस प्रकाश से, जो देवताओं तथा असुरों के 

मुकुटमणियों से निकलता है, जब वे देवी-चरणों में नमन करने के लिए शीश झुकाते हैं
जितकनकाचल मौलिमदोर्जित निर्भरकुञ्जर कुम्भकुचे –
साथ ही जैसे कोई गज (हाथी) सुमेरु पर्वत पर विजय पा कर उत्कट मद (घमंड) से अपना 

सिर ऊंचा उठाये हो, ऐसे देवी के कुम्भ-से (कलश-से) उन्नत उरोज प्रतीत होते हैं,
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते –
ऐसी हे देवी, हे महिषासुर का घात करने वाली सुन्दर जटाधरी गिरिजा ! तुम्हारी जय हो, जय हो!



विजितसहस्रकरैक सहस्रकरैक सहस्रकरैकनुते –
अपने सहस्र हाथो से देवी ने जिन सहस्र हाथों को अर्थात् सहसों दानवों को विजित किया उनके 

द्वारा और (देवताओं के) सहस्र हाथों द्वारा वन्दित,
कृतसुरतारक संगतारक संगतारक सूनुसुते –
अपने पुत्र को सुरगणों का तारक (बचाने वाला) बनानेवाली, तारकासुर के साथ युद्ध में,

(देवताओं के पक्ष में) युद्ध बचाने वाले पुत्र से पुत्रवती अथवा ऐसे पुत्र की माता एवं
सुरथसमाधि समानसमाधि समाधिसमाधि सुजातरते –
उच्चकुलोत्पन्न सुरथ और समाधि द्वारा समान रूप से की हुई तपस्या से प्रसन्न होने वाली देवी,
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते –
हे महिषासुर का घात करने वाली सुन्दर जटाधरी गिरिजा ! तुम्हारी जय हो, जय हो !



पदकमलं करुणानिलये वरिवस्यति योऽनुदिनं सुशिवे –
हे सुमंगला, तुम्हारे करुणा के धाम सदृश (के जैसे) चरण-कमल की पूजा जो प्रतिदिन करता है,
अयि कमले कमलानिलये कमलानिलयः स कथं न भवेत् –
हे कमलवासिनी, वह कमलानिवास (श्रीमंत) कैसे न बने? अर्थात कमलवासिनी की पूजा करने 

वाला स्वयं कमलानिवास अर्थात धनाढ्य बन जाता है।
तव पदमेव परम्पदमित्यनुशीलयतो मम किं न शिवे –
तुम्हारे पद ही (केवल) परमपद हैं, ऐसी धारणा के साथ उनका ध्यान करते हुए हे शिवे ! 

मैं परम पद कैसे न पाउँगा ?
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते –
हे महिषासुर का घात करने वाली सुन्दर जटाधरी गिरिजा ! तुम्हारी जय हो, जय हो !



कनकल सत्कल सिन्धु जलैरनु सिंचिनुते गुण रंगभुवम –
स्वर्ण-से चमकते व नदी के बहते मीठे जल से जो तुम्हारे कला और रंग-भवन रुपी 

मंदिर मे छिड़काव करता है

भजति स किं न शचीकुच कुंभ तटी परिरंभ सुखानुभवम् –
वह क्यों न शची (इन्द्राणी) के कुम्भ-से उन्नत वक्षस्थल से आलिंगित होने वाले 

(देवराज इंद्र) की सी सुखानुभूति पायेगा?
तव चरणं शरणं करवाणि नतामरवाणि निवासि शिवम –
हे वागीश्वरी, तुम्हारे चरण-कमलों की शरण ग्रहण करता हूँ, देवताओं द्वारा वन्दित हे 

महासरस्वती, तुममें मांगल्य का निवास है।
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते –
ऐसी हे देवी, हे महिषासुर का घात करने वाली सुन्दर जटाधरी गिरिजा ! तुम्हारी जय हो, जय हो !



तव विमलेन्दुकुलं वदनेन्दुमलं सकलं ननु कूलयते –
तुम्हारा मुख-चन्द्र, जो निर्मल चंदमा का सदन है, सचमुच ही सभी मल-कल्मष को किनारे 

पर कर देता है अर्थात् दूर कर देता करता है।
किमु पुरुहूतपुरीन्दु मुखी सुमुखीभिरसौ विमुखीक्रियते –
इन्द्रपुरी की चंद्रमुखी हो या सुन्दर आनन वाली रूपसी, वह (तुम्हारा मुख-चन्द्र) 

उससे (अवश्य) विमुख कर देता है।
मम तु मतं शिवनामधने भवती कृपया किमुत क्रियते –
हे शिवनाम के धन से धनाढ्या देवी, मेरा तो मत यह है कि आपकी कृपा से क्या कुछ 

संपन्न नहीं हो सकता।
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते –
हे महिषासुर का घात करने वाली सुन्दर जटाधरी गिरिजा ! तुम्हारी जय हो, जय हो !



अयि मयि दीन दयालुतया कृपयैव त्वया भवितव्यमुमे –
दीनों पर सदैव दयालु रहने वाली हे उमा, अब मुझ पर भी कृपा कर ही दो, 

(मुझ पर भी तुम्हें कृपा करनी ही होगी)।
अयि जगतो जननी कृपयासि यथासि तथानुमितासिरते –
हे जगत की जननी जैसे तुम कृपा से युक्त हो वैसे ही धनुष-बाण से भी युत हो, 

अर्थात् स्नेह व संहार दोनों करती हो।
यदुचितमत्र भवत्युररीकुरुतादुरुतापमपाकुरुते –
जो कुछ भी उचित हो यहाँ, वही आप कीजिए, हमारे ताप (और पाप) दूर कीजिए, 

अर्थात् नष्ट कीजिए।
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते –
हे महिषासुर का घात करने वाली सुन्दर जटाधरी गिरिजा ! तुम्हारी जय हो, जय हो !