रविवार, 27 फ़रवरी 2011

कुछ रस सा चुला देतीं वो ऑखें इन ऑखों में...


वो ऑखें इन ऑखों में कुछ जादू सा करती हैं.                          : ग़ज़ल :



-अरुण मिश्र.



वे  ऑखें,  इन  ऑखों को, अक्सर  हैं  रुला देतीं।
इक आन में  ज़ां लेतीं,  इक छिन में जिला देतीं।।


वो ऑखें,  इन ऑखों को, उल्फ़त का सिला देतीं। 
मिलती हैं जो आपस में,दिल,दिल से मिला देतीं।।

कुछ रस सा चुला देतीं, वो  ऑखें,  इन ऑखों में।
साक़ी की तरह,  मन में  फिर मिसरी घुला देतीं।। 
 
वे नज़रें  मुझ पे फिरतीं, जब भोर के किरन सी।
मन के चमन में  सौ-सौ,  गुन्चों को  खिला देतीं।।
  
वो  ऑखें, इन  ऑखों में, कुछ जादू सा करती हैं।
ऑखें   खुली  रह  जातीं ,  पर  होश   सुला  देतीं।। 
 
उन  ऑखों के सहारे , पहुँचो  तो  सिर्फ़ उन तक।
रहे-इश्क़  के  सिवा  वे ,  हर   राह   भुला   देतीं।। 
 
उन ऑखों का‘अरुन’ है, एहसान इन ऑखों पर।
सपनों  के  हिंडोले  में , तन-मन को  झुला देतीं।।
                                 *    

शनिवार, 19 फ़रवरी 2011

मृग की है कस्तूरी प्यास...


ग़ज़ल 

&अरुण मिश्र


शामो & सहर    सिंदूरी    प्यास। 
मृग   की   है   कस्तूरी   प्यास।।  

आये   पास    तो    प्यास  बुझे। 
मेरी    उसकी     दूरी     प्यास।।  

माना     भूख      जरूरी      है। 
उससे    मगर    जरूरी   प्यास।। 

रूप   के   दरिया   से   न  बुझी। 
सारी    उमर     अधूरी    प्यास।।

मैने    ही     कब     चाहा    है। 
होवे     मेरी     पूरी       प्यास।। 

बादल    की    मजबूरी      बूँद। 
चातक   की    मजबूरी    प्यास।। 

ज़ाम के संग&संग   मुफ्त  मिली। 
साक़ी    से   दस्तूरी       प्यास।। 

होगी       ऐश      अमीरों   की।  
मुफ़लिस   की  मज़दूरी   प्यास।। 

दुनिया      रंगीं       मयखाना। 
^अरुन*]  हुई    अंगूरी     प्यास।।
                  
                                         *

रविवार, 13 फ़रवरी 2011

रस-रंग-सिक्त सुन्दर वसंत...

रस-रंग-सिक्त  
सुन्दर  
वसंत...
-अरुण मिश्र.















































(काव्य-संग्रह 
अंजलि भर भाव के प्रसून 
से साभार)








रविवार, 6 फ़रवरी 2011

शायरी लेती है शायर का हमेशा इम्तहान...

ग़ज़ल  

-अरुण मिश्र.
 
बंदिशें  अ'शआर   की,  या  ज़िन्दगी  की  खैंच-तान।    
शायरी   लेती    है ,  शायर   का    हमेशा   इम्तहान।।
  
तुम  दरख्तों  के   घने  साये  से,  ग़र   निकले   नहीं।    
देख   पाओगे   नहीं ,   कितना   खुला   है  आसमान।।
   
ऊँचे   बरगद    के   तले,  पौधा    पनपता   है   कहीं?    
हर शज़र को लाज़िमी, अपनी ज़मीं,  अपना ज़हान।।
     
दूसरों के  सुर में  सुर  ही,  बस   मिलाते   मत   रहो।    
नन्हीं चिड़ियों तक की,होती है अलग अपनी ज़ुबान।।

घोंसले,  सोने  के  तिनकों  से  नहीं  बुनते  हैं   कुछ।     
जो  खुले  आकाश  में,  भरते  ‘अरून’  ऊँची   उड़ान।।
                                     *