कुंज भवन सएँ निकसलि रे रोकल गिरिधारी।
एकहि नगर बसु माधव हे जनि करु बटमारी॥
छाड़ कान्ह मोर आँचर रे फाटत नव सारी।
अपजस होएत जगत भारी हे जनि करिअ उघारी॥
संगक सखि अगुआइलरे हम एकसरि नारी।
दामिनि आए तुलाएलि हे एक राति अँधारी॥
भनहि विद्यापति गाओल रे सुनु गुनमति नारी।
हरिक संग किछु डर नहि हे तोंहे परम गमारी॥
कवि नागार्जुन का अनुवाद :
हम एक ही नगर के रहने वाले हैं। कान्हा, आंचल छोड़ दो। मेरी साड़ी अभी नयी-नयी
है, फट जाएगी। छोड़ दो। दुनिया में बदनामी फैलेगी। मुझे नंगी मत करो। साथ की
सहेलियां आगे बढ़ गयी हैं। मैं अकेली हूं। एक तो रात ही अंधेरी है, उस पर बिजली भी
कौंधने लगी - हाय, अब मैं क्या करूं? विद्यापति ने कहा, तुम तो बड़ी गुणवती हो। हरि