गुरुवार, 28 जून 2012

रूप को फिर निखारा गया.....



रूप को फिर निखारा गया.....

-अरुण मिश्र. 
             
रूप   को,   फिर,   निखारा   गया।
आइने      में,      सँवारा      गया।।


किस    पे,    पानी   चढ़ाया   गया?
किसका,    पानी    उतारा    गया??


बान,  नयनों  के,  जब   भी  चले। 
कौन   है,    जो    न   मारा   गया??


उठ के  महफ़िल से, वो क्या चला?
मेरा   दिल   भी,   बिचारा,   गया।।


था   वो  पहलू   में,  थी  ज़िन्दगी।
अब   तो ,   ये   भी  सहारा   गया।।


क्या  क़यामत थी  कल रात,   मैं।
नाम    ले    कर,    पुकारा    गया।। 
                         *  


सोमवार, 25 जून 2012

शौक़े-परवाज़ अपने पर तोलो......

शौक़े-परवाज़ अपने पर तोलो......
 
 -अरुण मिश्र.
      
    यूँ    ज़ुबां  से   तो  न   ज़हर  घोलो।
    ज़ान   ग़र  चाहिये,  तो    यूँ   बोलो॥


              प्यार   की    एक   नदी   बहती   है।
              दाग,   अपने   गुनाह   के   धो   लो॥

    हो   न   जायें   मेरे   अरमां  पत्थर।
    ऐ  बुतों!  अब तो कुछ  हिलो-डोलो॥

              इस  क़फ़स  की  हैं  तीलियाँ  फ़ानी।
              शौक़े - परवाज़,  अपने   पर  तोलो॥

    ख़ुद - बख़ुद   आयेगी    हवा   ताज़ा।
    तुम 'अरुन' सिर्फ़, खिड़कियाँ खोलो॥
                                    *

गुरुवार, 21 जून 2012

यही शाने-ज़िन्दगी है......



यही शाने-ज़िन्दगी है......


-अरुण मिश्र 
       
     
जो    हार    मान   लोगे,   दुश्वार    होंगी    राहें। 
ग़र    हौसला     रखोगे,    हमवार   होंगी   राहें।
मत  ज़िंदगी  से  भागो, तुम  ज़िंदगी से खेलो।
आँखों   में   डाल   आँखें,  बाहों  में   डाल   बाहें।।

        *                     *                   *

होनी  तो   हो   रहेगी,   हम  चाहें   या   न  चाहें।
जो हुआ ही नहीं अब तक, उस पर न भरो आहें।
हैं ज़ीस्त के मसाइल, आसान भी, मुश्किल भी। 
यही  शाने - ज़िन्दगी है,  हँस कर  इन्हें निबाहें।।

                                 *  

     

सोमवार, 11 जून 2012

१०० वर्ष तक के बच्चों के लिये मीठे जाइकू.....

 १०० वर्ष तक के बच्चों के लिये मीठे जाइकू..... 

(टिप्पणी : कुछ अति प्रबुद्ध मित्रों हेतु वर्ष 2004 में रचे गए मीठे जाइकू का आप भी आनन्द लें।)

- अरुण मिश्र.

जाइकू संरचना :
  • तीन पंक्तियॉ
  • ३,५,३  का क्रमशः पंक्तिवार शब्द विधान 
  • प्रथम एवं तृतीय पंक्ति तुकान्त  
  • गंभीर अन्तर्कथ्य, सरल कथन
  • जापानी हाइकू अभिप्रेरित, पूर्णतः भारतीयकृत, अभिनव विधा
  • हाइकू से सर्वथा भिन्न
  • जाइकू का 'जा' जापान एवं शेषांश हाइकू से ध्वनि-साम्य  हेतु 
  • प्रवर्तक : अरुण मिश्र
  • प्रवर्तन काल : जुलाई, २००४.

मीठे जाइकू :

1. दुनिया एक जलेबी।
    भीतर रस से सनी, पगी,
    बाहर कुरकुरी, फरेबी॥

     (अन्तर्कथ्य : जगत-प्रपंच)

2.  मथुरा पेड़ो भाय।
     ना खाये, सो तो पछताये,
     खाये हू पछताय॥

     (अन्तर्कथ्य : कर्म-फल-आसक्ति)
 
3. मानुस है रसगुल्ला।
    रस में डूबा, फूला-फूला,
    निचुड़े पर कठमुल्ला॥

      (अन्तर्कथ्य : मानव मन)

4.  बर्फी खोये केर।
     बदले रूप, दूध-चीनी भये,
     अस्सी रुपये सेर॥

      (अन्तर्कथ्य : रूप-गुण परिवर्तन)
                              *

मंगलवार, 5 जून 2012

देखें कौन उठाता है यह बीड़ा ?

टिप्पणी :
            वर्ष २००२ की इस रचना को सराहा तो कईयों ने, 
पर छापा किसी ने भी नहीं | किसी ने बहुत लम्बी होने के  
कारण, तो  किसी ने  कहीं  कोई  बुरा  न  मान जाये, इस 
कारण | पर मैं,  अभिव्यक्त  हो चुके  अपने मनोभावों को 
कब तक खुद तक सीमित रखूं ? अस्तु,  समर्पण  सहित 
पूरी रचना जस की तस प्रस्तुत है |
           प्रेरणा  के  लिए  सुश्री  निधि  मिश्रा  की  रिपोर्ट, 
'उत्तर प्रदेश' पत्रिका एवं उन नवोदित कवियों का आभारी 
हूँ जिन्होंने तथाकथित वरिष्ठ कवियों को आइना दिखाया| 
          यदि किसी को  इस से कोई असुविधा होती है  या  
कष्ट पहुँचता है तो, क्षमाप्रार्थी हूँ | यह मेरा उद्देश्य कदापि 
नहीं है | सिर्फ  अपनी बात  कहने का  प्रयास  किया  है | 
सहमत या असहमत होना सुधी पाठक का अधिकार है |

-अरुण मिश्र.


                                           -: समर्पण :-             
      नवोदितों के लिये फरवरी,२००२ में, लखनऊ  में आयोजित
कविता-कार्यशाला की,  'उत्तर प्रदेश' के मार्च, २००२ अंक में पृष्ठ
५६ पर  प्रकाशित,  सुश्री निधि मिश्रा की   रिपोर्ट, इस रचना की
प्रेरणा है। अतःयह रचना,उन्हीं नवोदितों को समर्पित है, जिनसे
हिन्दी कविता के भविष्य के संरक्षित होने की उम्मीद जगती है।                                                               
                                                                         -अरुण मिश्र.

देखें कौन उठाता है यह बीड़ा ?
   
(अनुरोध : कृपया इस रचना को कविता न समझें।) 

देखें कौन उठाता है
यह बीड़ा?
साहस का काम है,
ऐसे लिखे को छापना।
गो कि, धड़ल्ले से
छपतीं हैं, रोज़ाना 
ऐसी ही
तमाम कवितायें;
नामचीन कवियों की; 
सहित्यिक अखाड़ों की
नियत एवं अनियतकालीन
बुलेटिनों  में॥
(बात कविताओं की है,
प्रकाशनों की नहीं।)

अक्सर सोचता हूँ।
पूँछता हूँ मन ही मन।
क्यों भाई मिश्र जी,शुक्ल जी,
बाजपेयी जी,जोशी जी,
तिवारी जी,शास्त्री जी,
शर्मा साहब,सक्सेना साहब,
माथुर जी,मंडल जी,
लोई जी,धोई जी,
अबराल जी,सबराल जी
आदि-आदि जी गण;
(नाम से
क्या फ़र्क पड़ता है?)
यह सब
क्या लिख रहे हैं आप?
(कैसे लिख रहे हैं?
पूछना ही निरर्थक है।)
कौन सी कविता गढ़ रहे हैं??

 कैसे-कैसे बिम्ब
 रच रहे हैं ?
 किसके लिए
 लिख रहे हैं ?
 क्या जनता के लिये ?
 वह ज़रूर समझती होगी
 आपकी कवितायें,
 शायद !!
 (बतर्ज़, यह पब्लिक है,
 सब जानती है|)

 कैसे पढ़ एवं समझ
 पाते होंगे, स्कूलों में
 इन्हें बच्चे ;
 चौदह से चौबीस
 वर्ष तक के ?
 कैसे पढ़ाई जाती होंगी
 अध्यापकों द्वारा
 ऐसी लालित्यपूर्ण
 साहित्यिक रचनायें ??
 तो क्या आपस में
 एक-दूसरे के लिये 
 लिखते हैं?
 परस्पर सराहते हैं
 और घोषित करते हैं,
 एक-दूसरे को वरिष्ठ कवि |
 (अहो ! रूपं, अहो ! ध्वनिः |)
  बटोरते हैं, पुरस्कार आदि |
 हिंदी माता के सेवा हेतु |
 देते हैं महिमामंडित साक्षात्कार |
 जो  पुनः बन जायें
 कवितायें,
 अगर ऐसे ही फिर
 छाप दी जायें,
 आड़ी-तिरछी ||

एक गौरवपूर्ण 
साक्षात्कारित-उत्तर की 
बानगी देखें -
'तमाम विसंगतियों  एवं
तद्‌जन्य उद्वेलनों से
बन जाती हैं,
कविता की पंक्तियां;
फिर वे, 
इकट्‌ठी होती जाती हैं।
और, अब तो 
इतनी हो गईं हैं कि,
मुक्त-हस्त  दान दे सकता हूँ।'
(हाय रे,दम्भ!) 
मुझे पता है
आप मेरी इस रचना को
सिरे से ही नकार देंगे।
कहेंगे यह कविता है ही नहीं॥ 

मैं सहमत हूँ।
मैं भी इसे कविता नहीं मानता।
शायद! वक्तव्य है।
या कुछ कथ्य,
अथवा अभिव्यक्ति मात्र।
न ठीक से गद्य न पद्य।
उपर से
नीचे को लिखीं,
ढेर सारी छोटी-बड़ी पंक्तियां।
(आपके लिये तो कोरी बकवास है।)                           
पर श्रीमन्‌,
यह तो
आपकी ही शैली  है।
आपकी ही देन।
आपका ही ऋण।
वही रूप।
वही कलेवर।
कुछ-कुछ वैसा ही
प्रयोगवादी, प्रगतिशील,
क्रान्तिकारी, तेवर॥
( तुरीयं वस्तु  गोविन्दं ...) 

मंहगाई के ज़माने में 
किसी तरह
खरीद पाता हूँ जब,
पचास-साठ रूपये का,
कोई अनियतकालीन प्रकाशन;
(बुरा हो, साहित्यिक- जिज्ञासा का।)
तो कविता के 
नाम पर समर्पित,
चार-छः पन्नों पर ;
मुख-पृष्ठ  पर उद्घोषित
महान विभूतियों की,
पाता हूँ ऐसी  ही
महान कवितायें।
जिनकी, ऊपर-नीचे लिखी
छोटी-बड़ी पंक्तियां
जगह तो ज्यादा खा जाती हैं,
पर दिमाग  कम खाती हैं।
(शुक्र है, परवरदिगार  का |)
क्यों कि,अक्सर,
साधारण जनों द्वारा
पढ़ी ही नहीं जाती हैं॥
(हॉ, पैसे तो,    
उतने पृष्ठों के
पहले ही
खा चुकी होती हैं।)

कभी-कभी तो,
हद ही  हो जाती है।
(या शायद अब तक,
नहीं भी हुई है।)
जब ग़ज़लें भी
इसी तरह,
टुकड़े-टुकड़े, छपती हैं।
और, गीत भी॥ 

रदीफ़, काफ़िया, बहर,
छंद, लय, ताल, गति,
ध्वनि, अलंकार आदि;
सबके नव होने की
निराला की 
कामना को,
ऐसे फलीभूत करते;
धन्य हो सपूत
हिंदी भाषा के
सफल,सुकवि-गण॥
(यही तो है नवल-कंठ,
 रे! लंठ।)

नामवर आलोचक,
समीक्षक, प्रोफेसर आदि;
आप तो, 
और भी धन्य हो।
जो नित, उजागर 
करते हो इनमें,
तमाम संभावनाशील
विशिष्टताएं।    
और, बना देते हो,    
किसी को भी कवि;
जब चाहे ;                        
अपनी कलम के ज़ोर से॥ 

और तो और,
अब तो
बड़े-बड़े राजनेता;
राजपुरुष ;
भाँति-भाँति के,
वैधानिक-संवैधानिक
आसनों पर आसीन;
अध्यक्ष-उपाध्यक्ष;
सबके सब महामहिम;
यहॉ तक कि,
जीवन के 
किसी भी क्षेत्र में
शीर्ष के निकट पहुँचे
या पहुँचने को आतुर
सारे के सारे लोग
हो गये हैं, कवि।
या होना ज़रूरी
लगता है, इन्हें।
(विशाल अहं की तुष्टि हेतु,
ज़रूरी है, इनका कवि
घोषित हो जाना,
कैसे भी।)
जैसे इसके बिना
विद्वान,
नहीं रहेगा विद्वान।
विचारक,
नहीं हो सकेगा विचारक।
या दार्शनिक,
नहीं रह पायेगा दार्शनिक॥

कई नम्बर एक 
हिंदी अख़बारों के
स्वनामधन्य,
नामी-गिरामी, 
सम्पादक तो    
अपने ही रविवासरीय,
रंगीन परिशिष्टों में
छाप लेते हैं
अपनी ही कवितायें,
लम्बवत;
फुल पेज बाई टू कालम 
के स्पेस में,
(पूर्ण पृष्ठ, दो कालम चौड़ा।)
'हे सर्वज्ञ महान।
दो मुझे भी अमृत का दान।'
जैसी शैली में॥ 

धन्य हैं
ये सारे सुकवि;
और धन्य हैं वे
संगीतज्ञ जो,
सुर, ताल, लय में    
बाँध रहे हैं,
इन कविताओं को।                    
धन्य हैं वे
पद्मविभूषित नृत्यांगनायें,
जिनके नूपुर, इन्हें 
जीवन्त कर रहे हैं।
बहुत से पहुँचे हुये,
अति संवेदनशील
निर्देशक तो
इन पर फिल्में भी 
बना रहे हैं।                        
काव्य और कला का 
ऐसा सम्मिश्रित समुत्कर्ष!
धन्य हो रही है हिन्दी;
धन्य है अपना भारतवर्ष॥
(बड़ी किरिपा है 
सरस्वती मइया की।
या इसमें,                             
लक्ष्मी माता की 
कोई चाल है?)

ऐसे में,
मुझ जैसे अल्पज्ञ,
मूढ़ों की
समस्या यह है कि,
मैं सूर, तुलसी,
कबीर, जायसी,
बिहारी, मीरा,
पद्माकर, घनानंद, मतिराम,
प्रसाद, पंत, निराला,
महादेवी, बच्चन 
आदि का क्या करूँ ?
उन्हें अब कवि समझूँ ,
या नहीं?
गो कि, स्कूलों में 
उन्हें ही पढ़ा है,
कविता के नाम पर।    
और,शायद अब भी
पढ़ते होंगे,                        
मुझ जैसे
नासमझ विद्यार्थी ;
और, पढ़ा रहे होंगे,
आप में से
अधिकांश विद्वानों
जैसे ही,प्रोफेसर। 
हालॉकि, अब नहीं होती हैं,
वे समस्यापूर्तियां भी;
जिनसे, अनेक 
सत्तर पार के
कवियों ने
सीखा था,
कविता का  ककहरा॥
(खैर,अब तो कोई समस्या ही                           
 नहीं रही।) 

पर इस सबसे
एक बात ज़रूर
समझ में आती है
कि, कवितायें शायद, 
दो तरह की होती हैं।
(बतर्ज़ घर वाली, बाहर वाली।)
जैसे कि,
आंतरिक और 
बाह्य नैतिकतायें;
कथनी और करनी;
सिद्घांत और व्यवहार।
तुलसी, बिहारी, 
प्रसाद, बच्चन जैसे 
आउटडेटेड,
घिसे हुये रिकार्ड।
और, आधुनिक, 
प्रतिष्ठित, प्रतिस्थापित, पुरस्कृत;
वरिष्ठ कविगण।                    
नामधारी, नामवर, नामचीन।
नमनयोग्य।
अहो! सर्वथा नवीन॥
(नमः पुरस्तादथ पृष्ठतस्ते,
नमोस्तु ते सर्वत एव सर्व।)  

मुझे पता है;

कोई भी नहीं मानेगा, 
मेरे इस लिखे को,
कविता।
मैं भी नहीं मानता॥ 

पर कैसे भिन्न है यह,
कविता के नाम पर
छपते हुये, गद्यमय
वक्तव्यों से?
यह भी परे है,
सामान्य समझ से॥    
(सामान्य समझ से
विशिष्ट को समझेगा, मूढ़?)
 
इसी लिये
फिर कहता हूँ ;
इसे छापना,
साहस का काम है।
कौन उठायेगा
यह बीड़ा ??
         *