शुक्रवार, 21 दिसंबर 2018

चलो मन गंगा यमुना तीर....

"Chalo man Ganga-Yamuna teer". 

'Have been seeing this tag line since long during
Kumbh  Mela at Prayagraj but never knew before
that it is a bhajan by the saint poetess Meera Bai.

Please enjoy this famous bhajan in the voice of 
renowned vocalist of the yester era.

चलो मन गंगा यमुना तीर

चलो मन गङ्गा-जमुना तीर ।
गङ्गा-जमुना निर्मल पानी । शीतल होत शरीर ।। बंसी बजावत गावत कान्हा । संग लिये बलबीर ।। मोर-मुकुट पीताम्बर सोहे । कुण्डल झलकत हीर ।। मीरा के प्रभु गिरिधर नागर । चरण कमल पर सीर ।।

D.V. Paluskar :- Pandit Dattatreya Vishnu Paluskar (May 28, 1921 - October 26, 1955), was a Hindustani classical vocalist. He was considered a child prodigy. D.V. Paluskar was born in Nasik, Maharashtra to well-known Hindustani musician the legendary Vishnu Digambar Paluskar. His original surname was Gadgil, but as they hailed from the village Palus (near Sangli), they came to be known as the "Paluskar" family. He was only ten years old when his father died, and was subsequently trained by Pandit Vinayakrao Patwardhan and Pandit Narayanrao Vyas. He was also trained by Pandit Chintamanrao Paluskar and Pandit Mirashi Buwa. D.V. Paluskar gave his debut performance at the Harvallabh Sangeet Sammelan in Punjab at the age of fourteen. He inherited the Gwalior gharana and the Gandharva Mahavidyalaya, but he was always open to adopting aesthetic features of other gharanas and styles. He had a very sweet and melodious voice. His alap clearly outlined the raga he sang; this was followed by the bandish embellished by beautiful taans in an effortless enchanting style. He was a master at presenting an attractive and comprehensive picture of a raga in a very short duration. Besides pure classical music, he was also a great bhajan singer. He cut his first disc in 1944 and visited China as a member of the Indian cultural delegation in 1955. He is also famous for an unforgettable duet with Amir Khan in the film Baiju Bawra. The only other film he sang for was a Bengali film called Shaap Mochan. Personal life He died from encephalitis on 26 October 1955. Mumbai, India


सोमवार, 3 दिसंबर 2018

मधु-रजनी



मधु-रजनी 
-अरुण मिश्र.

आज     सुहानी    रात,    सुन्दरी,
सिहर   रहे   तरु   पात,   सुन्दरी |
फूली     आशाओं   की     बगिया ,
फलती   मन  की  बात,   सुन्दरी ||

तुममें    और    प्रकृति   में  देखो 
कैसा   साम्य    सजा   है,    रानी |
जो       मेरे-तेरे     मन    में     है ,
रात     रचाती,      वही     कहानी ||

नभ-गंगा   का   मनहर    पनघट ,
सलज  निशा, लेकर   यौवन-घट |
गूँथ     केश,     तारक-कलिकायें,
नुपुर   से   मुखरित  करती   तट ||

मधुर   चाँद   चेहरा   है  जिसका ,
उमर , उमंगें , सब कुछ, नटखट |
जाने   क्यूँ    डाले   है   फिर   भी ,
झीने    बादल      वाला      घूँघट ??

किन्तु , हवा  क्या कम  शरारती ?
हटा   रही   है    पल-पल   अंचल |
बढ़ी    जा   रही    है   मधु-रजनी ,
धरती डगमग, पग प्रति,  चंचल ||

श्यामल-श्यामल     मेघ-खंड  दो ,
लगा   रहे   हैं ,   काजल     काले |
राका  के   स्वप्निल  नयनों    में ,
जगा   रहे    हैं ,   सपन    निराले ||

चूनर,    धवल    उजास,   सुन्दरी|
तारक,     हीरक-हास ,     सुन्दरी | 
आज   लगा   हो,  ज्यूँ  पूनम  को,
सोलहवाँ      मधुमास      सुन्दरी ||

क्यूँ    इतना    शरमाई   यामिनि?
झिझक-झिझक बढ़ रही ठगी सी|
प्राची   में    प्रीतम   का    घर   है ,
प्रात    मिलेगी,   प्रीति  पगी  सी ||

यह  शायद   अभिसार  प्रथम  है ,
पथ  मुदमंगल,  मृदुल कुसुम हो | 
मेरी  तो  यामिनि,  निशि,  राका ,
रजनी ,   तारक ,  चंदा   तुम  हो ||
                       * 






(Re-published.)

गुरुवार, 22 नवंबर 2018

महर्षि वाल्मीकि कृत श्री गंगाष्टक का भावानुवाद



Image result for ganga river at shringverpur ghat pics
जय गंगा मैया 
https://youtu.be/UKUpawzDdY8

 ( टिप्पणी  :  यह भावानुवाद , पवित्र  श्रृंगवेर पुर घाट , जनपद प्रयाग की 
सीढ़ियों पर  जुलाई 1995 में हुआ था। इस गंगाष्टक में आदिकवि महर्षि 
वाल्मीकि ने गंगा को लेकर बड़ी ही मनोहारी, लालित्यपूर्ण एवं  भावमयी  
कल्पनायें की हैं, जिनका कृतज्ञतापूर्वक अनुवाद कर पुण्यलाभ लेते हुये 
धन्य होने के लोभ का संवरण मेरा कवि-मन न कर सका। मैं इसके लिये 
उन अनाम पंडित जी का भी कृतज्ञ हूँ  , जिन्हें गंगास्नान करते हुये इसका 
पाठ करते सुन कर,मेरे मन में इस भावानुवाद की प्रेरणा जाग्रत हुई | )
(पूर्वप्रकाशित ) 

अथ श्री गंगाष्टक भावानुवाद
- अरुण मिश्र
माता    शैलपुत्री    की   सहज   सपत्नी   तुम,
धरती  का   कंठहार  बन  कर  सुशोभित हो।
स्वर्ग-मार्ग  की  हो तुम  ध्वज-वैजयन्ती मॉ-
भागीरथी !  बस   तुमसे   इतनी   है   प्रार्थना-

बसते   हुये   तेरे  तीर,  पीते  हुये   तेरा  नीर,
होते     तरंगित     गंग ,    तेरे   तरंगों   संग।
जपते तव नाम, किये तुझ पर समर्पित दृष्टि,
व्यय   होवे   मॉं !    मेरे   नश्वर    शरीर   का।।

मत्त   गजराजों    के    घंटा - रव   से   सभीत -
शत्रु - वनिताओं   से    वन्दित   भूपतियों  से -
श्रेष्ठ ,    तव     तीर-तरु-कोटर-विहंग ,    गंग ;
तव  नर्क-नाशी-नीर-वासी ,  मछली-कछुआ ||

कंकण स्वर युक्त, व्यजन  झलती बालाओं से -
शोभित   भूपाल   अन्यत्र  का ,  न  अच्छा है |
सहूँ   जन्म-मरण-क्लेश,  रहूँ   तेरे  आर-पार ,
भले  गज,  अश्व,  वृषभ,  पक्षी  या  सर्प   बनूँ  ||
नोचें  भले   काक - गीध ,   खाएं  भले  श्वान-वृन्द ,
देव  -  बालाएं      भले ,     चामर      झलें    नहीं |
धारा-चलित, तटजल-शिथिल, लहरों से आन्दोलित,
भागीरथि !    देखूँगा   कब   अपना   मृत   शरीर।।

हरि  के  चरण कमलों  की   नूतन  मृणाल सी है;
माला,  मालती   की   है   मन्मथ  के   भाल  पर।
जय  हो    हे !  विजय-पताका  मोक्ष-लक्ष्मी  की;
कलि-कलंक-नाशिनि,  जाह्नवी ! कर पवित्र हमें।।

साल,  सरल,  तरु-तमाल,  वल्लरी-लताच्छादित,
सूर्यताप-रहित, शंख,  कुन्द,  इन्दु  सम उज्ज्वल।
देव -  गंधर्व -  सिद्ध -   किन्नर -   वधू -  स्पर्शित,
स्नान   हेतु   मेरे   नित्य,  निर्मल   गंगा-जल  हो।।

चरणों    से   मुरारी    के,   निःसृत   है   मनोहारी,
गंगा  -  वारि ,  शोभित   है   शीश   त्रिपुरारी   के।
ऐसी    पापहारी    मॉ - गंगा   का ,   पुनीत   जल,
तारे   मुझे   और   मेरा  तन - मन   पवित्र   करे।।

करती     विदीर्ण     गिरिराज  -   कंदराओं    को ,
बहती  शिलाखंडों  पर  अविरल  गति  से  है  जो;
पाप    हरे ,    सारे     कुकर्मों    का    नाश    करे ,
ऐसी      तरंगमयी      धारा ,     माँ - गंगा     की ||

कल-कल   रव   करते,   हरि- पद-रज  धोते हुए ,
सतत   शुभकारी,   गंग-वारि   कर   पवित्र  मुझे ||
                                *
वाल्मीकि - विरचित  यह  शुभप्रद  जो नर नित्य-
गंगाष्टक    पढ़ता    है    ध्यान    धर    प्रभात   में |
कलि-कलुष-रूपी   पंक ,  धो  कर  निज  गात्र  की ,
पाता   है   मोक्ष ;   नहीं  गिरता   भव - सागर   में ||
                            ***
" इति श्री वाल्मीकि -विरचित गंगाष्टक का भावानुवाद संपूर्ण |"

मूल संस्कृत पाठ :
॥ गङ्गाष्टकं श्रीवाल्मिकिविरचितम् ॥

मातः शैलसुता-सपत्नि वसुधा-शृङ्गारहारावलि
स्वर्गारोहण-वैजयन्ति भवतीं भागीरथीं प्रार्थये ।
त्वत्तीरे वसतः त्वदंबु पिबतस्त्वद्वीचिषु प्रेङ्खतः
त्वन्नाम स्मरतस्त्वदर्पितदृशः स्यान्मे शरीरव्ययः ॥ १॥

त्वत्तीरे तरुकोटरान्तरगतो गङ्गे विहङ्गो परं
त्वन्नीरे नरकान्तकारिणि वरं मत्स्योऽथवा कच्छपः ।
नैवान्यत्र मदान्धसिन्धुरघटासंघट्टघण्टारण-
त्कारस्तत्र समस्तवैरिवनिता-लब्धस्तुतिर्भूपतिः ॥ २॥

उक्षा पक्षी तुरग उरगः कोऽपि वा वारणो वाऽ-
वारीणः स्यां जनन-मरण-क्लेशदुःखासहिष्णुः ।
न त्वन्यत्र प्रविरल-रणत्किङ्किणी-क्वाणमित्रं
वारस्त्रीभिश्चमरमरुता वीजितो भूमिपालः ॥ ३॥

काकैर्निष्कुषितं श्वभिः कवलितं गोमायुभिर्लुण्टितं
स्रोतोभिश्चलितं तटाम्बु-लुलितं वीचीभिरान्दोलितम् ।
दिव्यस्त्री-कर-चारुचामर-मरुत्संवीज्यमानः कदा
द्रक्ष्येऽहं परमेश्वरि त्रिपथगे भागीरथी स्वं वपुः ॥ ४॥

अभिनव-बिसवल्ली-पादपद्मस्य विष्णोः
मदन-मथन-मौलेर्मालती-पुष्पमाला ।
जयति जयपताका काप्यसौ मोक्षलक्ष्म्याः
क्षपित-कलिकलङ्का जाह्नवी नः पुनातु ॥ ५॥

एतत्ताल-तमाल-साल-सरलव्यालोल-वल्लीलता-
च्छत्रं सूर्यकर-प्रतापरहितं शङ्खेन्दु-कुन्दोज्ज्वलम् ।
गन्धर्वामर-सिद्ध-किन्नरवधू-तुङ्गस्तनास्पालितं
स्नानाय प्रतिवासरं भवतु मे गाङ्गं जलं निर्मलम् ॥ ६॥

गाङ्गं वारि मनोहारि मुरारि-चरणच्युतम् ।
त्रिपुरारि-शिरश्चारि पापहारि पुनातु माम् ॥ ७॥

पापापहारि दुरितारि तरङ्गधारि
शैलप्रचारि गिरिराज-गुहाविदारि ।
झङ्कारकारि हरिपाद-रजोपहारि
गाङ्गं पुनातु सततं शुभकारि वारि ॥ ८॥

गङ्गाष्टकं पठति यः प्रयतः प्रभाते
वाल्मीकिना विरचितं शुभदं मनुष्यः ।
प्रक्षाल्य गात्र-कलिकल्मष-पङ्क-माशु
मोक्षं लभेत् पतति नैव नरो भवाब्धौ ॥ ९॥

॥ इति वाल्मीकिविरचितं गङ्गाष्टकं सम्पूर्णम् ॥



सोमवार, 12 नवंबर 2018

ओडिसी नृत्य का वैभव / केडे छँदा जानालो सही.../ भक्त कवि बनमाली दास / सुजाता मोहापात्रा

https://youtu.be/PGrgqMP4mYs 

THE CHARM OF ODISSI DANCE  

Watch the 16 minutes of mesmerising performance 
and immerse yourself in joy and devotion through subtitles in English.


THE POEM : “Kede chhanda janalo sahi Nanda rajara tiki pilati”

is written by great Oriya poet Banamali, which
depicts different episodes from Krishna Leela
such as Bakasura, Shakatasura, Kaliyadamana
and ends with little Krishna showing all universe
(viswarupa) by opening his mouth in front of his
mother Yasoda, who, realising the divinity of her
son, forgets to scold him for his mischief.

THE PERFORMANCE : This performance by
Sujata Mohapatra depicts a conversation among
Gopis about the achievements of little Krishna as
the lyrics goes -.
"What tricks that little boy of Nanda Raja Knows!"

THE POET : Banamali Dasa (1720–1793) is an 
Indian medieval Odia bhakta-poet from the state 
of Odisha. His songs are popularly sung in festivals
public gatherings and in Odissi dance. 

THE DANCER : Guru Sujata Mohapatra was born 
in Balasore in 1968. She started learning Odissi at 
an early age from Guru Sudhakar Sahu.
Sujata Mohapatra came to Bhubaneshwar
Odisha, in 1987 to further her training under 
at Odissi Research Center in Bhubaneshwar. 

She holds a master's degree in Oriya Literature from
Utkal University. She married Ratikant Mohapatra,
a dance Guru and son of Guru Kelucharan Mohapatra. 


Raaga : Mishra Pilu Tala : Rupak Choreography : Guru Kelucharan Mohapatra
Music  : Pandit Bhubaneswar Mishra

(SOURCE COURTESY INTERNET SEARCHES)
                                                                                                

मंगलवार, 6 नवंबर 2018

आरति श्री लक्ष्मी-गणेश की ....



         

                    *आरती* 

आरति   श्री  लक्ष्मी-गणेश   की | 
धन-वर्षणि की,शमन-क्लेश की ||
             
             दीपावलि     में     संग     विराजें |
             कमलासन - मूषक     पर    राजें |
             शुभ  अरु  लाभ,   बाजने    बाजें |
           
ऋद्धि-सिद्धि-दायक -  अशेष  की || 

    
             मुक्त - हस्त    माँ,   द्रव्य    लुटावें |
             एकदन्त,    दुःख      दूर    भगावें |  
             सुर-नर-मुनि सब जेहि जस  गावें |
             

बंदउं,  सोइ  महिमा विशेष  की ||


             विष्णु-प्रिया, सुखदायिनि  माता |
             गणपति,  विमल  बुद्धि  के  दाता |
             श्री-समृद्धि,  धन-धान्य    प्रदाता |

मृदुल  हास  की, रुचिर  वेश की ||
माँ लक्ष्मी, गणपति  गणेश  की ||

                                 * 

                                                                       -अरुण मिश्र  

(पूर्वप्रकाशित)

गुरुवार, 1 नवंबर 2018

जटाटवी गलज्जलप्रवाहपावितस्थले


https://youtu.be/uaUOPEYvQCc

SONG : SHIV TANDAV STOTRAM
BY SHANKAR MAHADEVAN
CONCEPT AND CHOREOGRAPHY - 
SAYANI CHAKRABORTY

The song "Shiv Tandav Stotram" is said 
to be a creation of Mahapandit 'Ravana'.
Tandava performed by Lord Shiva who 
is also known as "Natraja", the God of 
dance is the dance of passion, anger and 
intense energy.
Here in this presentation Sayani has tried 
'Rudra Tandav' based on 'Bharatnatyam' 
dance form with devotional and spiritual 
take on the song.

Only following six stanzas of 
"Shiv Tandav Stotram" has been 
used in this video. The Sanskrit 
text of these along with their 
Hindi Translation attempted by me 
are given below to make the poetry 
and the dance fully enjoyable.

जटाटवी गलज्जलप्रवाहपावितस्थले, 
गलेऽवलम्ब्य लम्बितां भुजङ्ग तुङ्ग मालिकाम् |
डमड्डमड्डमड्डमन्निनाद वड्डमर्वयं, 

चकार चण्डताण्डवं तनोतु नः शिवः शिवम् ||१||

जटा - वन - निःसृत,   गंगजल    के   प्रवाह   से-
पावन     गले,    विशाल     लम्बी     भुजंगमाल।
डम्-डम्-डम्, डम्-डम्-डम्, डमरू-स्वर पर प्रचंड,
करते   जो   तांडव,  वे   शिव  जी,  कल्याण  करें।।

जटा कटाहसंभ्रमभ्रमन्निलिम्पनिर्झरी, 
विलोलवीचिवल्लरी विराजमान मूर्धनि |
धगद्धगद्धगज्ज्वलल्ललाट पट्ट पावके 

किशोर चन्द्र शेखरे रतिः प्रतिक्षणं मम ||२||

जटा     के     कटाह    में,    वेगमयी    गंग    के,
चंचल   तरंग - लता   से   शोभित   है    मस्तक।
धग् - धग् - धग्  प्रज्ज्वलित पावक  ललाट पर;
बाल - चन्द्र - शेखर  में   प्रतिक्षण  रति  हो मेरी।।


जटाभुजङ्गपिङ्गलस्फुरत्फणामणिप्रभा 
कदम्बकुङ्कुमद्रवप्रलिप्तदिग्वधूमुखे |
मदान्धसिन्धुरस्फुरत्त्वगुत्तरीयमेदुरे 

मनो विनोदमद्भुतं बिभर्तुभूतभर्तरि ||४||

जटा   के   भुजंगो   के   फणों  के   मणियों   की-
पिंगल  प्रभा, दिग्वधुओं  के  मुख   कुंकुम  मले।
स्निग्ध,   मत्त - गज - चर्म - उत्तरीय  धारण  से,
भूतनाथ   शरण,    मन   अद्भुत     विनोद   लहे।।


प्रफुल्लनीलपङ्कजप्रपञ्चकालिमप्रभा- 
वलम्बि कण्ठकन्दली रुचिप्रबद्ध कन्धरम् |
स्मरच्छिदं पुरच्छिदं भवच्छिदं मखच्छिदं 

गजच्छिदांधकच्छिदं तमंतकच्छिदं भजे ||९||

खिले नील कमलों की,  श्याम वर्ण  हरिणों की,
श्यामलता से  चिह्नित, जिनकी  ग्रीवा  ललाम।
स्मर,पुर,भव, मख, गज, तम औरअन्धक का,
उच्छेदन  करते  हुये  शिव  को,  मैं   भजता हूँ।।


अखर्वसर्वमङ्गला कलाकदंबमञ्जरी 
रस प्रवाह माधुरी विजृंभणा मधुव्रतम् |
स्मरान्तकं पुरान्तकं भवान्तकं मखान्तकं 
गजान्तकान्धकान्तकं तमन्तकान्तकं भजे ||१०||

मंगलमयी   गौरी    के    कलामंजरी  का   जो-
चखते    रस - माधुर्य,   लोलुप    मधुप     बने।
स्मर,पुर,भव, मख, गज, तम और अन्धक के,
हैं जो  विनाशक, उन  शिव को  मैं   भजता  हूँ।।


इदम् हि नित्यमेवमुक्तमुत्तमोत्तमं स्तवं 
पठन्स्मरन्ब्रुवन्नरो विशुद्धिमेतिसंततम् |
हरे गुरौ सुभक्तिमाशु याति नान्यथा गतिं 

विमोहनं हि देहिनां सुशङ्करस्य चिंतनम् ||१४||

उत्तमोत्तम   इस   स्तुति  को   जो  नर  नित्य,
पढ़ता,   कहता   अथवा    करता   है   स्मरण।
पाता  शिव - भक्ति;  नहीं पाता  गति अन्यथा;
प्राणी   हो  मोहमुक्त,  शंकर   के   चिन्तन  से।।

                                *

बुधवार, 31 अक्तूबर 2018

ललितलवङ्गलतापरिशीलनकोमलमलयसमीरे...


https://youtu.be/28DB8iR9DJo   Dr. M. Balamuralikrishna

THE GREAT LITERATURE AND GREAT MUSIC OF INDIA
Raising the Soul to Spiritual Zenith

From Geet Govindam of the great poet Shri Jai Dev

ललितलवङ्गलतापरिशीलनकोमलमलयसमीरे...

॥ गीतम् ३ ॥

ललितलवङ्गलतापरिशीलनकोमलमलयसमीरे ।
मधुकरनिकरकरम्बितकोकिलकूजितकुञ्जकुटीरे ॥

विहरति हरिरिह सरसवसन्ते नृत्यति युवतिजनेन
समं सखि विरहिजनस्य दुरन्ते ॥ १॥ विहरति

उन्मदमदनमनोरथपथिकवधूजनजनितविलापे ।
अलिकुलसंकुलकुसुमसमूहनिराकुलबकुलकलापे ॥ २॥ विहरति

मृगमदसौरभरभसवशंवदनवदलमालतमाले ।
युवजनहृदयविदारणमनसिजनखरुचिकिंशुकजाले ॥ ३॥ विहरति

मदनमहीपतिकनकदण्डरुचिकेसरकुसुमविकासे ।
मिलितशिलीमुखपाटलिपटलकृतस्मरतूणविलासे ॥ ४॥ विहरति

विगलितलज्जितजगदवलोकनतरुणकरुणकृतहासे ।
विरहिनिकृन्तनकुन्तमुखाकृतिकेतकदन्तुरिताशे ॥ ५॥ विहरति

माधविकापरिमलललिते नवमालिकजातिसुगन्धौ ।
मुनिमनसामपि मोहनकारिणि तरुणाकारणबन्धौ ॥ ६॥ विहरति

स्फुरदतिमुक्तलतापरिरम्भणमुकुलितपुलकितचूते ।
बृन्दावनविपिने परिसरपरिगतयमुनाजलपूते ॥ ७॥ विहरति

श्रीजयदेवभणितमिदमुदयति हरिचरणस्मृतिसारम् ।
सरसवसन्तसमयवनवर्णनमनुगतमदनविकारम् ॥ ८॥ विहरति
                                      *

शनिवार, 27 अक्तूबर 2018

धीर समीरे यमुना तीरे... जयदेव...गीतगोविन्द...स्वर : रघुनाथ पाणिग्रही





Dheera Sameere Yamuna Teere.. 

Geeta govinda : Shri Jayadeva

Sung by
Pandit Raghunath Panigrahi.

Pandit Raghunath Panigrahi (1932-2013) is a legend.
Famous Indian classical singer and Music Director.
A noted vocalist of Gita Govinda, he left a promising
career in film music in Chennai, to provide vocal support
in his wife, a legendary Odissi danseuse Sanjukta Panigrahi's
performances.
He has lifetime contribution towards promoting, propagating
and popularising the life and works of Shri Jayadeva, messages
of Geeta Govinda and the cult of Lord Jagannatha.

॥ गीतम् ११ ॥
रतिसुखसारे गतमभिसारे मदनमनोहरवेशम् । न कुरु नितम्बिनि गमनविलम्बनमनुसर तं हृदयेशम् ॥
धीरसमीरे यमुनातीरे वसति वने वनमाली गोपीपीनपयोधरमर्दनचञ्चलकरयुगशाली ॥ १॥
नाम समेतं कृतसंकेतं वादयते मृदुवेणुम् । बहु मनुते ननु ते तनुसंगतपवनचलितमपि रेणुम् ॥ २॥
पतति पतत्रे विचलति पत्रे शङ्कितभवदुपयानम् । रचयति शयनं सचकितनयनं पश्यति तव पन्थानम् ॥३॥
मुखरमधीरं त्यज मञ्जीरं रिपुमिव केलिसुलोलम् । चल सखि कुञ्जं सतिमिरपुञ्जं शीलय नीलनिचोलम् ॥ ४॥
उरसि मुरारेरुपहितहारे घन इव तरलबलाके । तडिदिव पीते रतिविपरीते राजसि सुकृतविपाके ॥ ५॥
विगलितवसनं परिहृतरसनं घटय जघनमपिधानम् । किसलयशयने पङ्कजनयने निधिमिव हर्षनिदानम् ॥ ६॥
हरिरभिमानी रजनिरिदानीमियमपि याति विरामम् । कुरु मम वचनं सत्वररचनं पूरय मधुरिपुकामम् ॥ ७॥
श्रीजयदेवे कृतहरिसेवे भणति परमरमणीयम् । प्रमुदितहृदयं हरिमतिसदयं नमत सुकृतकमनीयम् ॥ ८॥
*

गुरुवार, 25 अक्तूबर 2018

आरति श्री लक्ष्मी-गणेश की....

श्री लक्ष्मी-गणेश जी की पहली एवं एकमात्र उपलब्ध, संयुक्त आरती। 
दीपावली पर दोनों की संयुक्त पूजा में उपयोगार्थ सप्रेम भेंट। 
माँ लक्ष्मी एवं भगवान गणेश सभी पर कृपालु हों।  

- अरुण मिश्र.
















(पूर्वप्रकाशित)

बुधवार, 10 अक्तूबर 2018

नवरात्रि की मंगलकामनाएं

https://youtu.be/gMVumyq-naM




"या देवी सर्वभूतेषु शक्ति-रूपेण संस्थिता।
 नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः॥"
जय- जय भैरवि असुर भयाउनि

-विद्यापति

जय-जय भै‍रवि असुर भयाउनि
पशुपति भामिनी माया
सहज सुमति वर दियउ गोसाउनि
अनुगति गति तुअ पाया

वासर रैनि सबासन शोभित
चरण चन्‍द्रमणि चूड़ा
कतओक दैत्‍य मारि मुख मेलल
कतओ उगिलि कएल कूड़ा

सामर बरन नयन अनुरंजित
जलद जोग फुलकोका
कट-कट विकट ओठ पुट पांडरि
लिधुर फेन उठ फोंका

घन-घन-घनय घुंघरू कत बाजय
हन-हन कर तुअ काता
विद्यापति कवि तुअ पद सेवक
पुत्र बिसरू जनि माता

                *

शनिवार, 6 अक्तूबर 2018

मदालसा की लोरी



           
                                                                                                                                               मदालसा ने कहा, लाल मेरे ! 

(भावानुवाद)

-अरुण मिश्र 

मदालसा ने कहा, लाल मेरे !  
संसार-माया से मुक्त है तू। 
तू निष्कलुष, बुद्ध है, शुद्ध-आत्मा;
संसार है स्वप्न, तज मोह-निद्रा।।

पञ्चतत्वों की है, ये नहीं देह तेरी;
न तेरा कोई नाम, तू शुद्ध है तात।  
संज्ञा अभी जो मिली, वो भी कल्पित;
मेरे लाल ! फिर क्यों भला रो रहा है।।

या कि न रोता, रुदन-शब्द  तेरे, 
स्वयं जन्म लेते, तेरे पास आकर।  
तेरी इन्द्रियों के सकल दोष औ' गुण,  
भी हैं पञ्चभौतिक, ओ राजा के बेटे !!

अबल तत्त्व जैसे हैं अभिवृद्धि करते, 
सबल तत्त्व से पाके सहयोग जग में।
पा अन्न-जल , देह ही पुष्ट होती ;
आत्मा न बढ़ती न घटती है किञ्चित।।

ये देह कर्मों का फल है शुभाशुभ;
मद आदि से है, बँधा देह-चोला। 
अगर शीर्ण हो जाये, मत मोह करना,
तू आत्मा है, बँधा है न इससे ।।

कोई पिता, पुत्र कोई कहाता ; 
माता कोई और भार्या  है कोई। 
हैं पञ्चभूतों के ही रूप नाना;
कोई मेरा और कोई पराया ।।

दुःख मात्र ही, सारे भोगों का फल है;
पर मूढ़ उसको ही, सुख मानते हैं। 
दुःख वस्तुतः, भोग से प्राप्त सुख भी,
जो हैं नहीं मूढ़, वे जानते हैं ।। 

हँसी नारि की, अस्थियों का प्रदर्शन;
सुन्दर नयन-युग्म, मज्जा-कलुष हैं। 
सघन मांस की ग्रंथियाँ, कुच जो उभरे ;
नहीं नर्क क्या, तू है अनुरक्त जिससे ??   

चले रथ धरा पर, रथी किन्तु रथ में,
धरा को भला मोह क्या है रथी से। 
रहे आत्मा देह में पर जो ममता,
दिखे देह से तो यही मूढ़ता है ।।

                       *


मूल संस्कृत पाठ :

"शुद्धोसि बुद्धोसि निरँजनोऽसि
सँसारमाया परिवर्जितोऽसि
सँसारस्वप्नँ त्यज मोहनिद्राँ
मँदालसोल्लपमुवाच पुत्रम्।।"

शुद्धोऽसि रे तात ! न तेऽस्ति नाम
कृतं हि ते कल्पनयाधुनैव ।
पञ्चात्मकं देहमिदं तवैतन्
नैवास्य त्वं रोदिषि कस्य हेतोः॥२५.११॥

न वा भवान् रोदिति वै स्वजन्मा
शब्दोऽयमासाद्य महीशशूनुम् ।
विकल्प्यमाना विविधा गुणास्ते
ऽगुणाश्च भौताः सकलेन्द्रियेषु॥२५.१२॥

भूतानि भूतैः परिदुर्बलानि
वृद्धिं समायान्ति यथेह पुंसः ।
अन्नाम्बुपानादिभिरेव कस्य
न तेऽस्ति वृद्धिर्न च तेऽस्ति हानिः॥२५.१३॥

त्वं कञ्चुके शीर्यमाणे निजेऽस्मिंस्
तस्मिंश्च देहे मूढतां मा व्रजेथाः ।
शुभाशुभैः कर्मभिर्देहमेतन्
मदादिमूढैः सञ्चुकस्तेऽपिनद्धः॥२५.१४॥

तातेति किञ्चित्तनयेति किञ्चिद्
अम्बेति किञ्चिद्दयितेति किञ्चित् ।
ममेति किञ्चिन्न ममेति किञ्चित्
त्वं भूतसङ्घं बहुमानयेथाः॥२५.१५॥

दुः खानि दुः खोपगमाय भोगान्
सुखाय जानाति विमूढचेताः ।
तान्येव दुः खानि पुनः सुखानि
जानात्यविद्वान सुविमूढयेताः॥२५.१६॥

हासोऽस्थिसन्दर्शनमक्षियुग्मम्
अत्युज्ज्वलं तर्जनमङ्गनायाः ।
कुचादिपीनं पिशितं घनं तत्
स्थानं रतेः किं नरकं न योषित्॥२५.१७॥

यानं क्षितौ यानगतञ्च देहं
देहेऽपि चान्यः पुरुषो निविष्टः ।
ममत्वबुद्धिर्न तथा यथा स्वे
देहेऽतिमात्रं बत मूढतैषा॥२५.१८॥

इति श्रीमार्कण्डेयपुराणे मदालसोपाख्याने पञ्चविंशोऽध्यायः

                                       *