https://youtu.be/uaUOPEYvQCc
SONG : SHIV TANDAV STOTRAM
BY SHANKAR MAHADEVAN
CONCEPT AND CHOREOGRAPHY -
SAYANI CHAKRABORTY
The song "Shiv Tandav Stotram" is said
to be a creation of Mahapandit 'Ravana'.
Tandava performed by Lord Shiva who
is also known as "Natraja", the God of
dance is the dance of passion, anger and
intense energy.
Here in this presentation Sayani has tried
'Rudra Tandav' based on 'Bharatnatyam'
dance form with devotional and spiritual
take on the song.
Only following six stanzas of
"Shiv Tandav Stotram" has been
used in this video. The Sanskrit
text of these along with their
Hindi Translation attempted by me
are given below to make the poetry
and the dance fully enjoyable.
जटाटवी गलज्जलप्रवाहपावितस्थले,
गलेऽवलम्ब्य लम्बितां भुजङ्ग तुङ्ग मालिकाम् |
डमड्डमड्डमड्डमन्निनाद वड्डमर्वयं,
चकार चण्डताण्डवं तनोतु नः शिवः शिवम् ||१||
जटा - वन - निःसृत, गंगजल के प्रवाह से-
पावन गले, विशाल लम्बी भुजंगमाल।
डम्-डम्-डम्, डम्-डम्-डम्, डमरू-स्वर पर प्रचंड,
करते जो तांडव, वे शिव जी, कल्याण करें।।
धगद्धगद्धगज्ज्वलल्ललाट पट्ट पावके
किशोर चन्द्र शेखरे रतिः प्रतिक्षणं मम ||२||
जटा के कटाह में, वेगमयी गंग के,
चंचल तरंग - लता से शोभित है मस्तक।
धग् - धग् - धग् प्रज्ज्वलित पावक ललाट पर;
बाल - चन्द्र - शेखर में प्रतिक्षण रति हो मेरी।।
जटाभुजङ्गपिङ्गलस्फुरत्फणामणिप्रभा
कदम्बकुङ्कुमद्रवप्रलिप्तदिग्वधूमुखे |
मदान्धसिन्धुरस्फुरत्त्वगुत्तरीयमेदुरे
मनो विनोदमद्भुतं बिभर्तुभूतभर्तरि ||४||
जटा के भुजंगो के फणों के मणियों की-
पिंगल प्रभा, दिग्वधुओं के मुख कुंकुम मले।
स्निग्ध, मत्त - गज - चर्म - उत्तरीय धारण से,
भूतनाथ शरण, मन अद्भुत विनोद लहे।।
प्रफुल्लनीलपङ्कजप्रपञ्चकालिमप्रभा-
वलम्बि कण्ठकन्दली रुचिप्रबद्ध कन्धरम् |
स्मरच्छिदं पुरच्छिदं भवच्छिदं मखच्छिदं
गजच्छिदांधकच्छिदं तमंतकच्छिदं भजे ||९||
खिले नील कमलों की, श्याम वर्ण हरिणों की,
श्यामलता से चिह्नित, जिनकी ग्रीवा ललाम।
स्मर,पुर,भव, मख, गज, तम औरअन्धक का,
उच्छेदन करते हुये शिव को, मैं भजता हूँ।।
अखर्वसर्वमङ्गला कलाकदंबमञ्जरी
रस प्रवाह माधुरी विजृंभणा मधुव्रतम् |
स्मरान्तकं पुरान्तकं भवान्तकं मखान्तकं
गजान्तकान्धकान्तकं तमन्तकान्तकं भजे ||१०||
मंगलमयी गौरी के कलामंजरी का जो-
चखते रस - माधुर्य, लोलुप मधुप बने।
स्मर,पुर,भव, मख, गज, तम और अन्धक के,
हैं जो विनाशक, उन शिव को मैं भजता हूँ।।
इदम् हि नित्यमेवमुक्तमुत्तमोत्तमं स्तवं
पठन्स्मरन्ब्रुवन्नरो विशुद्धिमेतिसंततम् |
हरे गुरौ सुभक्तिमाशु याति नान्यथा गतिं
विमोहनं हि देहिनां सुशङ्करस्य चिंतनम् ||१४||
उत्तमोत्तम इस स्तुति को जो नर नित्य,
पढ़ता, कहता अथवा करता है स्मरण।
पाता शिव - भक्ति; नहीं पाता गति अन्यथा;
प्राणी हो मोहमुक्त, शंकर के चिन्तन से।।
*
गलेऽवलम्ब्य लम्बितां भुजङ्ग तुङ्ग मालिकाम् |
डमड्डमड्डमड्डमन्निनाद वड्डमर्वयं,
चकार चण्डताण्डवं तनोतु नः शिवः शिवम् ||१||
जटा - वन - निःसृत, गंगजल के प्रवाह से-
पावन गले, विशाल लम्बी भुजंगमाल।
डम्-डम्-डम्, डम्-डम्-डम्, डमरू-स्वर पर प्रचंड,
करते जो तांडव, वे शिव जी, कल्याण करें।।
जटा कटाहसंभ्रमभ्रमन्निलिम्पनिर्झरी,
विलोलवीचिवल्लरी विराजमान मूर्धनि |धगद्धगद्धगज्ज्वलल्ललाट पट्ट पावके
किशोर चन्द्र शेखरे रतिः प्रतिक्षणं मम ||२||
जटा के कटाह में, वेगमयी गंग के,
चंचल तरंग - लता से शोभित है मस्तक।
धग् - धग् - धग् प्रज्ज्वलित पावक ललाट पर;
बाल - चन्द्र - शेखर में प्रतिक्षण रति हो मेरी।।
जटाभुजङ्गपिङ्गलस्फुरत्फणामणिप्रभा
कदम्बकुङ्कुमद्रवप्रलिप्तदिग्वधूमुखे |
मदान्धसिन्धुरस्फुरत्त्वगुत्तरीयमेदुरे
मनो विनोदमद्भुतं बिभर्तुभूतभर्तरि ||४||
जटा के भुजंगो के फणों के मणियों की-
पिंगल प्रभा, दिग्वधुओं के मुख कुंकुम मले।
स्निग्ध, मत्त - गज - चर्म - उत्तरीय धारण से,
भूतनाथ शरण, मन अद्भुत विनोद लहे।।
प्रफुल्लनीलपङ्कजप्रपञ्चकालिमप्रभा-
वलम्बि कण्ठकन्दली रुचिप्रबद्ध कन्धरम् |
स्मरच्छिदं पुरच्छिदं भवच्छिदं मखच्छिदं
गजच्छिदांधकच्छिदं तमंतकच्छिदं भजे ||९||
खिले नील कमलों की, श्याम वर्ण हरिणों की,
श्यामलता से चिह्नित, जिनकी ग्रीवा ललाम।
स्मर,पुर,भव, मख, गज, तम औरअन्धक का,
उच्छेदन करते हुये शिव को, मैं भजता हूँ।।
अखर्वसर्वमङ्गला कलाकदंबमञ्जरी
रस प्रवाह माधुरी विजृंभणा मधुव्रतम् |
स्मरान्तकं पुरान्तकं भवान्तकं मखान्तकं
गजान्तकान्धकान्तकं तमन्तकान्तकं भजे ||१०||
मंगलमयी गौरी के कलामंजरी का जो-
चखते रस - माधुर्य, लोलुप मधुप बने।
स्मर,पुर,भव, मख, गज, तम और अन्धक के,
हैं जो विनाशक, उन शिव को मैं भजता हूँ।।
इदम् हि नित्यमेवमुक्तमुत्तमोत्तमं स्तवं
पठन्स्मरन्ब्रुवन्नरो विशुद्धिमेतिसंततम् |
हरे गुरौ सुभक्तिमाशु याति नान्यथा गतिं
विमोहनं हि देहिनां सुशङ्करस्य चिंतनम् ||१४||
उत्तमोत्तम इस स्तुति को जो नर नित्य,
पढ़ता, कहता अथवा करता है स्मरण।
पाता शिव - भक्ति; नहीं पाता गति अन्यथा;
प्राणी हो मोहमुक्त, शंकर के चिन्तन से।।
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