गुरुवार, 4 दिसंबर 2025

शाह-ए-शमशाद-क़दाँ ख़ुसरव-ए-शीरीं-दहनाँ.../ शायर : हाफ़िज़ शीराज़ी / गायन : इक़बाल बानो

https://youtu.be/-lSpsh88Qqk  

शाह-ए-शमशाद-क़दाँ ख़ुसरव-ए-शीरीं-दहनाँ
कि ब-मिज़्गाँ शिकनद क़ल्ब-ए-हमः-सफ़-शिकना

मिष्ठ भाषियों का जो अधिपति शमशादों का जो सिरताज
हृदय तोड़ देता पलकों से रथियों के सिरमौरों का

मस्त ब-गुज़श्त-ओ-नज़र बर मन-ए-दरवेश अन्दाख़्त
गुफ़्त कि ऐ चश्म-ओ-चराग़-ए-हमः-शीरीं-सुख़नाँ

मस्ती से चलते जब उसकी इस फ़क़ीर पर नज़र पड़ी
ऐ मिष्ठबोलों के दृगतारे मुझको यूँ सम्बोधा गया

ता के अज़ सीम-ओ-ज़रत कीसः तिही ख़्वाहद-बूद
पंद-ए-मा ब-शिनो-ओ-बरख़ुर ज़े हमः सीम-तनाँ

कब तक और रहोगे वंचित स्वर्ग-रजत के वैभव से
मेरा सेवक बन कर चख तू फल जो उजले तन का है

गुफ़्त 'हाफ़िज़' मन-ओ-तू महरम-ए-ईं-राज़ न-एम
अज़ मय-ए-ला'ल हिकायत कुन-ओ-सीमीं-ज़क़नाँ

इस पर बोली हवा कि ‘हाफ़िज़’ हम तुम क्या जानें यह राज़
यह तो अमृतभाषियों से या लोहित मदिरा से पूछो

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