शनिवार, 24 सितंबर 2011

शेष आशा-अमृत अब भी.....


शेष आशा-अमृत अब भी.....

-अरुण मिश्र 


किस लिये हम जी रहे हैं।
इस  गरल को, पी  रहे हैं॥


      आम्र-तरु निष्फल निरन्तर,
      नित्य ही, विष-बेल फलती।
      तम-कलुष की विजय-गाथा,
      छातियों पर,  मूँग   दलती॥


छल-अनृत के कुटिल  सूये,  
सत्य  का  मुँह,  सी  रहे हैं॥        
   
      पर  अभी  भी   डालियों  पर,
      सुरभि-पूरित  पुष्प  खिलते।
      और,   माँ   की   गोदियों  में,
      शिशु सरल अब भी मचलते॥


शेष आशा-अमृत अब भी;
इस लिये  हम  जी  रहे हैं।
हर   हलाहल   पी  रहे  हैं॥
                            *