शेष आशा-अमृत अब भी.....
-अरुण मिश्र
किस लिये हम जी रहे हैं।
इस गरल को, पी रहे हैं॥
आम्र-तरु निष्फल निरन्तर,
नित्य ही, विष-बेल फलती।
तम-कलुष की विजय-गाथा,
छातियों पर, मूँग दलती॥
छल-अनृत के कुटिल सूये,
सत्य का मुँह, सी रहे हैं॥ पर अभी भी डालियों पर,
सुरभि-पूरित पुष्प खिलते।
और, माँ की गोदियों में,
शिशु सरल अब भी मचलते॥
शेष आशा-अमृत अब भी;
इस लिये हम जी रहे हैं।
हर हलाहल पी रहे हैं॥
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