-अरुण मिश्र
वो जो इल्मो-फ़न के थे आशना, कहीं दीखते वो बशर नहीं।
जो मिरे कलाम में था असर, मुझे अब लगे वो असर नहीं॥
जो मिरे कलाम में था असर, मुझे अब लगे वो असर नहीं॥
सभी ग़ुल हैं सूखते शाख़ पर, सभी हीरे लिपटे हैं धूल में।
न वो क़द्रदां, न वे पारखी, हैं वो पहले से अहले-नज़र नहीं॥
हैं बदलते वक़्त के संग-संग, सभी रूप-रंग बदल गये।
है ज़माना पहुँचा कहाँ तलक, तुझे इसकी कोई ख़बर नहीं॥
अभी भी बचे हैं दरख़्त कुछ, मेरे शह्र में , मिरे लान में।
पर थीं जिसपे कूकती कोयलें, कहीं दूर तक वो शज़र नहीं॥
तेरे नग़मों में अभी ताजगी, तेरी ऑखों में अभी ख़्वाब हैं।
तेरी जुस्तजू है अथाह की, कहीं थक के जाना ठहर नहीं॥
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....मेरे शह्र में, मेरे लान में। |