मंगलवार, 25 दिसंबर 2012

पत्र, उत्तर एवं प्रत्युत्तर

      मित्रों, आज आपको लगभग 44 वर्ष पूर्व लिखी कविता 
प्रस्तुत कर रहा हूँ। सोलह-सत्रह साल के किशोर वय की यह 
कविता पत्र -उत्तर शैली में है। इतने वर्षों बाद जब मैंने स्वयं 
इसका पुनर्पाठ किया तो मुझे लगा कि, अनगढ़पन के बावजूद 
इसमें कच्ची उम्र का एक भावुक सलोनापन है, जो आकर्षक है।
      अस्तु,  इसके माध्यम से आज आपको कैशोर्य के उस 
कालखण्ड में ले चल रहा हूँ जो मेरी कविताओं का प्रारंभिक 
दौर है।
       इस कविता के प्रत्युत्तर का एक प्रति-उत्तर भी है जो फिर 
कभी अगली पोस्ट में।   -अरुण मिश्र.


Pen_and_paper : Old paper with a candle and a quill pen.

पत्र, उत्तर एवं प्रत्युत्तर 

-अरुण मिश्र.


                            :  पत्र  :

हेमन्ती    रात     और    अनजानी   प्रीति;
अनचाहे   मुखर   हुआ,   अनगाया   गीत।
जाने  कौन  आकर्षण, बाँधता  अकारण है;
अनाघ्रात,    अस्पर्शित,    मेरे    मनमीत??

                            :  उत्तर  :

शब्द  नहीं  मिलते  हैं,   कैसे करूँ  धन्यवाद?
आखि़र  निर्मोही   को  आई   तो  मेरी  याद।
तुमको  क्या  कह कर   मैं   सम्बोधित करूँ?
तुम तो, मेरे सब सम्बोधन तोड़ोगे निर्विवाद।।

                        :  प्रत्युत्तर  :

शोर  दिन का,  ज्यों  चरण-नूपुर हो  तेरा।
केश,  ज्यों   निस्पन्द  रजनी  का  अँधेरा।
रात-दिन  की   व्यस्तता  में   डूब कर  यूँ ; 
और  लघु  होता  है,   स्मृतियों  का   घेरा।।

याद   फिर,   कैसे   भला,   आये    न   तेरी;

रात में,   दिन में,   कि   चारों ओर   तुम हो।
प्राण   की   मेरे   तुम्हीं   अस्तित्व,  रूपसि!
और   मेरी   कल्पना   की   छोर,   तुम   हो।।

विगत की स्मृति, भविष्यत का सपन स्वर्णिम,
और  इस  प्रत्यक्ष  की  अनुभूतियाँ  मधुतम,
मूल   में    इनके,    तुम्हारा   रूपशाली   मन;
बाँधती     सस्नेह,      रेशम-डोर     तुम    हो।।

कह   गया   शायद   बहुत   मैं   भेद  की   बातें;

प्यार   रह  कर  मूक  है   ख़ुद  ही  मुखर  होता।
दूर    तक     फैले     हुये     काले     अँधेरे    में, 
टिमटिमाता  दीप   है,    कितना   प्रखर   होता।।

और स्वीकृति ही है शाश्वत प्रीति की प्रतिध्वनि;
गिन  रही   है  ज़िंदगी   फिर,   साँस  की   सीढ़ी।
मैं   विवश  था,   मौन  को   यूँ   शब्द  देने  हेतु,
पत्थरों   को   तोड़,   ज्यों  जाता  बिखर   सोता।।

हम  नियति  के   हाथ  के,   मोमी  खिलौने  हैं,

काल की  जो  आँच से,  गल जायेंगे  इक  दिन।
प्रीति-तरु  के    हेतु  है,   दावाग्नि  यह  संसार;
नीड़धर्मी  विहग   सब,   जल जायेंगे इक दिन।।

बहुत  सम्भव   सृष्टि  में,   भूकम्प   वह  आये;

प्रलय   छाये,    और   जग    अःशेष  हो  जाये।
पर  हमारा प्यार यह  लौकिक,  अलौकिक  हो;
हो  अमर,  ताजा  रहेगा,   हर  घड़ी,  हर  छिन।।

                                      *


शुक्रवार, 21 दिसंबर 2012

याद आयेगी तुम्हें आतिश-फि़शां मेरी ज़बान....

ग़ज़ल 

याद आयेगी तुम्हें आतिश-फि़शां मेरी ज़बान....

-अरुण मिश्र.


अब क़फ़स की तीलियां टूटी हैं,  अब होगी उड़ान।
अब तेरे परवाज़ की ताइर, अलग  ही  होगी शान।।

हसरतें  अब  भी  जवां हैं,  हौसले अब भी बुलन्द।
जुम्बिशे-पर  चीर  कर रख देगी,  सारा आसमान।।

मैं   उफ़ुक़  के  पार  होता  हूँ ,   ख़यालो-फि़क्र  में।
दीद  की   हद  में   हमारे,   होते   हैं  दोनो  जहान।।

ख़ामुशी  छा  जायेगी,   जब  भी  कभी  माहौल में।
याद  आयेगी  तुम्हें,  आतिश-फि़शां  मेरी  ज़बान।।

हैं ‘अरुन’ आज़ाद-ख़ू,कब कर सकीं हम को असीर। 
ज़ुल्फ की  ज़जीर,   या  तीरे-नज़र,   भौंहें-कमान।।

                                          * 



शुक्रवार, 14 दिसंबर 2012

श्रीमद् शंकराचार्यकृत चर्पटपञ्जरिकास्तोत्रम् का भावानुवाद






श्रीमद् शंकराचार्यकृत चर्पटपञ्जरिकास्तोत्रम् 
                     का भावानुवाद

-अरुण मिश्र.


भज गोविन्द  मूढ़मते,  भज  गोविंद  के  चरण।
मृत्यु के  समीप,   साथ   देता  नहीं  व्याकरण।।

रात्रि-दिवस, प्रात-साँझ,  शेष हुई  जाती  आयु।
क्रीड़ा करे कालचक्र,   छूटे  पर  न  आशा-वायु।।

जागे,  सहे अग्नि-भानु;  सोये, धरे चिबुक जानु।
भिक्षा-भोग, तरु-निवास; छूटे पर न आशा-पाश।।

कमा  सकेगा  जब तक,   देगा   परिवार  स्नेह।
जर्जर  जब   हुई   देह,   पूछे  नहीं   कोई   गेह।।

जटा बढ़ा,  केश घुटा,  भगवा   धरे   नाना-वेष।
देख के न देखा;  सहे,   उदर के निमित्त  क्लेश।।

किंचित   भगवद्गीता,   बूँद    मात्र    गंगाजल।
जिसपे  हरि-चर्चा-बल,  उसको यम है निर्बल।।

गलित अंग, पलित  मुंड;  दशनहीन हुआ तुंड।
हुआ वृद्ध,  गहा दंड;   छूटा पर  न  आशा-पिंड।।

क्रीड़ा  में  बाल्यकाल;   तरुणाई   तरुणी  संग।
वृद्ध  तदपि चिंतामग्न;  प्रभु का  ना  चढ़ा रंग।।

पुनः-पुनः  जन्म-मरण;   गर्भ-शयन  बार-बार।
ले कर हरि-शरण,   करो,   दुस्तर  संसार  पार।।

रात्रि-दिवस-पक्ष-मास-अयन-वर्ष    बार-बार।
साथ   पर   नहीं   छोड़े    आशा-ईर्ष्या-विकार।।

नष्ट-आयु,  कैसा काम?   शुष्क-नीर-सर,   न अर्थ।
नष्ट-द्रव्य, परिजन कहाँ ? तत्व-ज्ञान,जगत, व्यर्थ।।

नारीस्तन-नाभि   हैं,    माँस-मेद   के   विकार।
मिथ्या  ये  माया-मोह,    सोचो  मन  बार-बार।।

कौन तुम?  कहाँ  से हो?   सबको   असार   जान।
जननी औ’ तात कौन?  तजो विश्व,  स्वप्न मान।।

पढ़ो गीता-सहस्त्रनाम;   श्री-पति का धरो ध्यान।
चित्त  लहे   सत्संगति;   दीनजनों  को   दो  दान।।

जब तक तन बसें प्राण, तब तक सब पूँछें  कुशल।
होती,   मृत-देह  देख,   भार्या भी   भय से  विकल।।

पहले    तो    सुःख-भोग;   पीछे,  रोगमय  शरीर।
नश्वर   संसार    तदपि,    मन   पाप  को   अधीर।।

चिथड़ों से रचा कंथ;   पुण्यापुण्य  विचलित  पंथ।
‘मैं, तू औ’ विश्व शून्य’  जान के भी,   शोक? हंत!!

गंगासागर-गमन,      व्रत-पालन    तथा      दान।
मुक्ति    नहीं   सौ जन्मों तक  होगी,  बिना  ज्ञान।।

                      *

                   इति श्री शंकराचार्य-विरचित चर्पटपञ्जरिकास्तोत्रम् 
                                           का भावानुवाद संपूर्ण।

शनिवार, 8 दिसंबर 2012

मेरा गहरा रिश्ता ख़ारों से......

ग़ज़ल 

मेरा गहरा रिश्ता ख़ारों से.....

- अरुण मिश्र.



मेरा         गहरा        रिश्ता      ख़ारों    से।
मैं      क्यूँ      माँगूँ      भीख    बहारों    से।।

मेरे   जख़्म  हरे  हैं,   जिन पर   खिले हुये।
फूल     लहू       के     सुर्ख़     फुहारों    से।।

देखें   किसकी   प्यास  बुझाता  कौन यहाँ।
आज      उफनती      नदी     किनारों   से।।

बिन पैसे, दिन स्याह-स्याह सा बीत गया।
रात      रखूँ     क्या    आस    सितारों   से??

‘अरुन’  बहुत   मासूम   तुम्हारी  उम्मीदें।
इन्क़लाब      कब      आता      नारों    से??

                                     *

रविवार, 2 दिसंबर 2012

दिल पे हर लहज़ा जु़नूँ तारी है.....

ग़ज़ल 
indian paintings

दिल पे हर लहज़ा जु़नूँ  तारी है.....

-अरुण मिश्र.


दिल पे हर लहज़ा जु़नूँ  तारी है।
आज-कल  उनकी इन्तज़ारी है।।

लम्हे  सदियों से क्यूँ  गुजरते हैं?
क्या न  रफ़्तारे-वक़्त   जारी है??

कट गई  उम्र  इक,  तमन्ना में।
अब क्यूँ  दो-चार घड़ी,  भारी है??

एक आहट सी,  हुई  है  दर  पर।
क्या ये  किस्मत खुली हमारी है??

तुम ‘अरुन’ हो अबस भुलावे में।
ऐसी  तक़दीर,  क्या  तुम्हारी है??

                           *