शनिवार, 27 जून 2015

LAWN MEN SHAAM KO GUNGUNATEY HUYE.......

लॉन में शाम को गुनगुनाते हुये .....





तिरे भी पास ऐसा तो कोई जादू नहीं होगा....

-अरुण मिश्र



भले  ज़ाहिर   सहारे  को    कोई    बाज़ू  नहीं  होगा 
मगर   उस  पर  यकीं  तो  बेसहारा  तू   नहीं  होगा 

निकलते रोज़ हैं शम्श-ओ-क़मर फिर डूब जाने को 
पै  तेरे  हुस्न  पर   ये   फ़लसफ़ा   लागू  नहीं  होगा 

नहीं ज़ल्वानशीं देखा था उस को बज़्म में  जब तक 
गुमाँ  ये  था  कभी  दिल  अपना  बेक़ाबू  नहीं होगा 

न   तेरी  याद   भी   आये   हमें   गर  तू   नहीं  चाहे 
तिरे   भी   पास   ऐसा   तो   कोई   जादू  नहीं  होगा

'अरुन'  तू  दूर  होता  है  तो  अक्सर  सोचता  हूँ  मैं 
हमीं  रह  जायगें  तनहा  जो   तनहा  तू  नहीं  होगा

                                                                *




 

सोमवार, 22 जून 2015

कौन है मेरा दुश्मन, हारता हूँ मैं किस से ?



16.04.95
कौन है मेरा दुश्मन ?

-अरुण मिश्र

भीतर    है    अंधकार,   बाहर    है    रोशनी।
हैं  कितने निर्धन,  जो  ख़ुद को  कहते धनी।।


हंस  मर  रहे   भूखे,  उल्लुओं  की  पौ बारह।
लक्ष्मी मैया  की  भी,  सुरसती से  क्या ठनी।।


कौन है  मेरा  दुश्मन,  हारता हूँ  मैं  किस से ?
क्या  नहीं है  सच,  मेरी  ख़ुद से  है  दुश्मनी।।


लाख  जतन कर डाले,  ज़िन्दगी सँवर जाये।
बात  पर  बनी  न  कुछ,  उल्टे  जां पर  बनी।।


कलियाँ किरनों के संग, दिन भर तो हैं खेलीं।
सिमट रहीं हैं  किरनें, कलियाँ सब अनमनी।।


यार को भी था जाना,चौदहवीं की ही शब को।
वर्ना  देखता  कितनी,  चाँद  तुझ में  रोशनी।।


रूप  की   किसी   गंगा   से,  ज़रूर  गुज़री है।
है   हवा  रसीली   ये,   कितनी  ख़ुशबू  सनी।।


बदलियां थिरकती  हैं, झूम-झूम  रस  झरतीं।
बिजलियों  ने  पहनाई,   चाँदी  की  करधनी।।


वक़्त का कसैलापन,  कुछ तो  बेअसर होगा।
प्यार की  ‘अरुन’  थोड़ी,  डालो  तो   चाशनी।।


                                            *
 

शुक्रवार, 5 जून 2015

विश्व पर्यावरण दिवस, ५, जून पर विशेष ...............

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पर्यावरण वन्दना

- अरुण मिश्र

वन्दना  करिये  धरा  की;
धरा   के   पर्यावरण  की।।

          झर    रहे   निर्झर   सुरीले,
          और नदियाँ बहें कल-कल।
          ताल, पोखर,  झील, सागर,
          हर तरफ  है,  नीर  निर्मल।।


चर-अचर जिसमें सुरक्षित,
स्नेहमय उस आवरण की।।


         मन्द,  मन्थर  पवन शाीतल;
         आँधियों   का   तीव्रतर स्वर।
         सर्वव्यापी     वायु    पर    ही,
         प्राणियों   की   साँस   निर्भर।।


जीव-जग-जीवनप्रदायिनि-
प्रकृति के, शुभ आचरण की।।


         अन्न   के   भण्डार   दे   भर,
         भूमि  उर्वर,   शस्य-श्यामल।
         भूख     सबकी     मेटने   को-
         वृक्ष,   फलते  हैं   मधुर  फल।।


माँ   धरा    की    गोद    के,
इस मोदमय वातावरण की।।

                        *
(काव्य-संग्रह 'कस्मै देवाय' से साभार)