गुरुवार, 19 दिसंबर 2024

याद.../ शायर : फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ / गायन : मीशा सफ़ी

https://youtu.be/tYB-6i_q4sU  


दश्त-ए-तन्हाई में ऐ जान-ए-जहाँ लर्ज़ां हैं
तेरी आवाज़ के साए तिरे होंटों के सराब
दश्त-ए-तन्हाई में दूरी के ख़स ओ ख़ाक तले
खिल रहे हैं तिरे पहलू के समन और गुलाब

उठ रही है कहीं क़ुर्बत से तिरी साँस की आँच
अपनी ख़ुशबू में सुलगती हुई मद्धम मद्धम
दूर उफ़ुक़ पार चमकती हुई क़तरा क़तरा
गिर रही है तिरी दिलदार नज़र की शबनम

इस क़दर प्यार से ऐ जान-ए-जहाँ रक्खा है
दिल के रुख़्सार पे इस वक़्त तिरी याद ने हात
यूँ गुमाँ होता है गरचे है अभी सुब्ह-ए-फ़िराक़
ढल गया हिज्र का दिन आ भी गई वस्ल की रात

रविवार, 15 दिसंबर 2024

आज्यो म्हारा देस.../ मीराबाई / स्वर : विदुषी अश्विनी भिड़े

https://youtu.be/vpRgMYh6v8A  


बतियाँ दौरावत’ के सभी श्रोताओं का मीराबाई के साथ चल रहे हमारे सफर में सादर स्वागत ।
आज का मीराबाई का पद मेरे दिल के बहुत ही करीब है, क्यूँ कि इसकी स्वररचना मेरी अत्यंत पसंदीदा, गुरुसमान स्व. शोभा गुर्टूजी की है, और इसको मैंने स्वयं शोभाताई से ही सीखा है।

मीराबाई को जब उनके मानसदेव गिरिधर गोपाल मिल जाते हैं, तब उनके पदों में एक समर्पणभाव छलकता है। परंतु जब मीराबाई हरिमिलन से वंचित रहतीं हैं, चाहे यह विरह कुछ क्षणों का ही क्यूं न हो- तब वे जलबिन मछली की तरह तड़पतीरहती हैं। विरह से व्याकुल हो उठतीं हैं। जैसे यह विरह जन्मजन्मांतर का हो ! और कहती है,
लागी सोही जाणे,
कठण लगण दी पीर

आज का मीरा भजन इसी बिरह की अगन, पीडा को चित्रित करता है।
सांवरिया, आज्यो म्हारा देस,
थारी सांवरी सुरतवालो भेस,
आज्यो म्हारा देस ॥

पद की स्वररचना का आधार है राग अहिरभैरवी- या अहिरी तोडी का।
पद के शुरुआत की 'सांवरियां…’ की पुकार उस कान्हा को वहां सुनाई देगी, जहाँ भी वो होगा। इस पुकार में मीरा की सारी तड़प उजागर होती है।

आइए, सुनते हैं, मीराबाई की पुकार - 'साँवरिया, आज्यो म्हारा देस'.

बुधवार, 11 दिसंबर 2024

आजु नाथ एक व्रत महा सुख लागल हे.../ महाकवि विद्यापति /

https://youtu.be/PCHrnCAQALI

विद्यापति गीत

आजु नाथ एक व्रत महा सुख लागत हे 
तोहे शिव धरु नट वेष कि डमरू बजाबह हे

तोहें जे कहैछ गौरी नाचय कि हम कोना नाचब हे
आहे चारि सोच मोहि होए कोन बिधि बाँचब हे

अमिअ चुबिअ भूमि खसत बघम्बर जागत हे
होएत बघम्बर बाघ बसहा धरि खायत हे

सिरसँ ससरत साँप पुहुमि लोटायत हे
कार्तिक पोसल मजूर सेहो धरि खायत हे

जटासँ छिलकत गंग भूमि भरि पाटत हे
होएत सहस्त्र मुखी धार समेटलो न जाएत हे

मुंडमाल टुटि खसत, मसानी जागत हे
तोहें गौरी जएब पड़ाए नाच के देखत हे

*महाकवि विद्यापति जी की अनुपम रचना*
              *एक रोचक कथा*
एक बार मां पार्वती जी ने भोलेनाथ से कहा की आज आप नट के वेश धर के डमरू बजाइए जिससे मुझे परम सुख की अनुभूति होगी।तो शिव ने कहा की हे गौरी आप जो मुझे नृत्य करने कह रही हैं मुझे चार चिंता हो रही है जिससे किस तरह से बचा जायेगा।

पहली चिंता अमृत के जमीन पर टपकने से बाघंबर जो मैंने पहन रखा है वो जीवित होकर बाघ बन जायेगा और बसहा को खा जायेगा।

दूसरी चिंता सिर पर से सर्प गिर जायेंगे और जमीन पर फैल जायेंगे और कार्तिक ने जो मयूर को पाला है उसे पकड़ के खा लेगा।

तीसरी चिंता मेरे जटा से गंगा छलक जायेगी और सारी जमीन पर फैल जाएगी और जिसके सैकड़ों मुख हो जायेंगे जिसे समेटना मुश्किल हो जायेगा।

चौथी चिंता ये हो रही है की मैं मुंड का माला पहना हूं 
वो टूट कर गिर जाएगा और सारे जग जायेंगे और आप भाग जाएगी डर कर तो मेरा नाच कौन देखेगा।

पर महाकवि विद्यापति कहते हैं की उन्होंने सब बाधाओं को सम्हालते हुए गौरी का मान रखा और अपना नृत्य दिखाया।

सोमवार, 9 दिसंबर 2024

जबसे मोहिं नंदनंदन दृष्टि पड्यो माई.../ मीराबाई / प्रस्तुति : विदुषी अश्विनी भिडे / गायन : शरयू दाते एवं शमिका भिडे

https://youtu.be/cQCqTDA5XM0  



जबसे मोहिं नंदनंदन दृष्टि पड्यो माई
तबसे परलोक लोक कछु ना सुहाई

मोरन की चंद्रकला, सीस मुकुट सोहे
केसरको तिलक भाल, तीन लोक मोहे

कुंडल की अलक झलक कपोलन सुहाई
‘मनोमीन सरवर तजि मकर मिलन आई...!’

नमस्ते, 'बतियां दौरावत’ के सभी सुधी श्रोताओं को आज ले चलती हूँ नंदनंदन के दर्शन कराने। भक्त सिरोमणि मीराबाई की नज़रोंसे, उन्हें जैसा दिखाई दिये, वैसे।
यूँ तो श्रीकृष्ण परमात्मा की छबि का वर्णन करनेवाले अनगिनत पद मिलते हैं, और मीराबाई भी इस छबि से मोहित रहीं। उन्होंने भी इस छबि का वर्णन करने हेतु कई पद लिखें ।आज जो पद हम सुनेंगे उसके शब्द है

जबसे मोहिं नंदनंदन दृष्टि पड्यो माई
तबसे परलोक लोक कछु ना सुहाई

गिरिधर गोपाल के मुखचंद्र से मीराबाई को तुरन्त ही लगाव हो गया। सिरपर धारण किए हुए मुकुटपर लहर रहा मोरपिच्छ, भालप्रदेशपर केसर तिलक,

मोरन की चंद्रकला, सीस मुकुट सोहे
केसरको तिलक भाल, तीन लोक मोहे

अर्धोन्मीलित नयन, उगते सूरज के वर्णवाले अधरोंपर मंद मंद मुसकान, कानों में मकराकृती कुंडल, जिनकी प्रभा कपोल - अर्थात् गालों पर छा रही है। और - यह प्रतिमा मुझे बहुतही मनभावन लगती है, कि गालों पर छा रही कुंडलप्रभा कुंडलों की दोलायमान होने की वजह से ऐसा लग रहा है मानों मन का मीन मानसरोवर को त्यागकर  कुंडलों के मकर से मिलने के लिए गालोंपर आ पहुंचा हो…।

कुंडल की अलक झलक कपोलन सुहाई
‘मनोमीन सरवर तजि मकर मिलन आई...!’

श्रीकृष्ण परमात्मा की विलोभनीय छबि का वर्णन करते समय मीरा अपनेआप को किसी भी सर्वसामान्य गोपी की भूमिका में विलीन कर देती हैं। यह भावना किसी भी गोपी की हो सकती है, मीरा की अकेली की नहीं।

“चालां वाही देस”, या “माई म्हाने सुपणां में परणी गोपाल”, या मीराबाई का सर्वज्ञात पद “मेरे तो गिरिधर गोपाल दूसरो न कोई” इन सारे पदों में जो भावना है, वह मीरा की अकेली की है, कोई अन्य सामान्य गोपी ऐसी भावना महसूस नहीं कर सकती। यह तो मीरा की प्रतिभा की उडान है। यह है श्रीकृष्ण परमात्मा से एकाकार होने पर जो आनंद प्राप्त हुआ उसका आविष्कार!

चूंकि यह भावना मीरा की अकेली की नहीं, इसलिए इसे युगलगीत की तरह प्रस्तुत किया है। इसे स्वर दिया है, मेरी दो गुणी विद्यार्थिनियों- शरयू दाते तथा शमिका भिडे ने ।

आइए, सुनते हैं, युगलगीत
“जबसे मोहिँ नंदनंदन दृष्टि पड्यो माई
तबसे परलोक लोक कछु न सुहाई।”

-अश्विनी भिडे देशपांडे 

रविवार, 1 दिसंबर 2024

लइ न गए बेइमनऊ हमका लइ न गए.../ ठुमरी / गायन : नैना देवी.

https://youtu.be/8Ei4uPGB_4Y  


नैना देवी (२७ सितम्बर १९१७ - १ नवम्बर १९९३) 
जिन्हें नैना रिपजीत सिंह के नाम से भी जाना जाता है, 
हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत की भारतीय गायिका थीं, 
जो मुख्यतः अपनी ठुमरी प्रस्तुतियों के लिए जानी 
जाती थीं, हालाँकि उन्होंने दादरा और ग़ज़लें भी 
गाईं। वह ऑल इंडिया रेडियो और बाद में दूरदर्शन 
में संगीत निर्माता थीं। उन्होंने अपनी किशोरावस्था 
में गिरजा शंकर चक्रवर्ती से संगीत की शिक्षा शुरू 
की, बाद में १९५० के दशक में रामपुर-सहसवान 
घराने के उस्ताद मुश्ताक हुसैन खां और बनारस 
घराने की रसूलन बाई से इसे फिर से शुरू किया। 
कोलकाता के एक कुलीन परिवार में जन्मी, उनकी 
शादी १६ साल की उम्र में कपूरथला स्टेट के शाही 
परिवार में हुई थी।

लइ ना गये बेइमनऊ, हमका लइ ना गये
लइ ना गये दगाबजऊ  हमका लइ ना गये

चार महीना बरखा के लागे
बूँद बरसे बदरवा, हमका लइ ना गये

चार महीना जाड़ा के लागे
थर-थर काँपे बदनवा, हमका लइ ना गये

बुधवार, 27 नवंबर 2024

ऐ इश्क़ हमें बर्बाद न कर.../ शायर : अख़्तर शीरानी / गायन : नय्यरा नूर

https://youtu.be/tmWrOweFHt4?si=H-PM7gZZb_N0t3Fu


ऐ इश्क़ न छेड़ आ आ के हमें हम भूले हुओं को याद न कर
पहले ही बहुत नाशाद हैं हम तू और हमें नाशाद न कर

क़िस्मत का सितम ही कम नहीं कुछ ये ताज़ा सितम ईजाद न कर
यूँ ज़ुल्म न कर बे-दाद न कर

ऐ इश्क़ हमें बर्बाद न कर
जिस दिन से मिले हैं दोनों का सब चैन गया आराम गया

चेहरों से बहार-ए-सुब्ह गई आँखों से फ़रोग़-ए-शाम गया
हाथों से ख़ुशी का जाम छुटा होंटों से हँसी का नाम गया

ग़मगीं न बना नाशाद न कर
ऐ इश्क़ हमें बर्बाद न कर

हम रातों को उठ कर रोते हैं रो रो के दुआएँ करते हैं
आँखों में तसव्वुर दिल में ख़लिश सर धुनते हैं आहें भरते हैं

ऐ इश्क़ ये कैसा रोग लगा जीते हैं न ज़ालिम मरते हैं
ये ज़ुल्म तू ऐ जल्लाद न कर

ऐ इश्क़ हमें बर्बाद न कर
ये रोग लगा है जब से हमें रंजीदा हूँ मैं बीमार है वो

हर वक़्त तपिश हर वक़्त ख़लिश बे-ख़्वाब हूँ मैं बेदार है वो
जीने पे इधर बेज़ार हूँ मैं मरने पे उधर तयार है वो

और ज़ब्त कहे फ़रियाद न कर
ऐ इश्क़ हमें बर्बाद न कर

जिस दिन से बँधा है ध्यान तिरा घबराए हुए से रहते हैं
हर वक़्त तसव्वुर कर कर के शरमाए हुए से रहते हैं

कुम्हलाए हुए फूलों की तरह कुम्हलाए हुए से रहते हैं
पामाल न कर बर्बाद न कर

ऐ इश्क़ हमें बर्बाद न कर
बेदर्द! ज़रा इंसाफ़ तो कर इस उम्र में और मग़्मूम है वो

फूलों की तरह नाज़ुक है अभी तारों की तरह मासूम है वो
ये हुस्न सितम! ये रंज ग़ज़ब! मजबूर हूँ मैं मज़लूम है वो

मज़लूम पे यूँ बे-दाद न कर
ऐ इश्क़ हमें बर्बाद न कर

ऐ इश्क़ ख़ुदारा देख कहीं वो शोख़-ए-हज़ीं बद-नाम न हो
वो माह-लक़ा बद-नाम न हो वो ज़ोहरा-जबीं बद-नाम न हो

नामूस का उस के पास रहे वो पर्दा-नशीं बद-नाम न हो
उस पर्दा-नशीं को याद न कर

ऐ इश्क़ हमें बर्बाद न कर
उम्मीद की झूटी जन्नत के रह रह के न दिखला ख़्वाब हमें

आइंदा की फ़र्ज़ी इशरत के वादों से न कर बेताब हमें
कहता है ज़माना जिस को ख़ुशी आती है नज़र कमयाब हमें

छोड़ ऐसी ख़ुशी को याद न कर
ऐ इश्क़ हमें बर्बाद न कर

क्या समझे थे और तू क्या निकला ये सोच के ही हैरान हैं हम
है पहले-पहल का तजरबा और कम-उम्र हैं हम अंजान हैं हम

ऐ इश्क़! ख़ुदारा! रहम-ओ-करम मासूम हैं हम नादान हैं हम
नादान हैं हम नाशाद न कर

ऐ इश्क़ हमें बर्बाद न कर
वो राज़ है ये ग़म आह जिसे पा जाए कोई तो ख़ैर नहीं

आँखों से जब आँसू बहते हैं आ जाए कोई तो ख़ैर नहीं
ज़ालिम है ये दुनिया दिल को यहाँ भा जाए कोई तो ख़ैर नहीं

है ज़ुल्म मगर फ़रियाद न कर
ऐ इश्क़ हमें बर्बाद न कर

दो दिन ही में अहद-ए-तिफ़्ली के मासूम ज़माने भूल गए
आँखों से वो ख़ुशियाँ मिट सी गईं लब को वो तराने भूल गए

उन पाक बहिश्ती ख़्वाबों के दिलचस्प फ़साने भूल गए
इन ख़्वाबों सी यूँ आज़ाद न कर

ऐ इश्क़ हमें बर्बाद न कर
उस जान-ए-हया का बस नहीं कुछ बे-बस है पराए बस में है

बे-दर्द दिलों को क्या है ख़बर जो प्यार यहाँ आपस में है
है बेबसी ज़हर और प्यार है रस ये ज़हर छुपा इस रस में है

कहती है हया फ़रियाद न कर
ऐ इश्क़ हमें बर्बाद न कर

आँखों को ये क्या आज़ार हुआ हर जज़्ब-ए-निहाँ पर रो देना
आहंग-ए-तरब पर झुक जाना आवाज़-ए-फ़ुग़ाँ पर रो देना

बरबत की सदा पर रो देना मुतरिब के बयाँ पर रो देना
एहसास को ग़म बुनियाद न कर

ऐ इश्क़ हमें बर्बाद न कर
हर दम अबदी राहत का समाँ दिखला के हमें दिल-गीर न कर

लिल्लाह हबाब-ए-आब-ए-रवाँ पर नक़्श-ए-बक़ा तहरीर न कर
मायूसी के रमते बादल पर उम्मीद के घर तामीर न कर

तामीर न कर आबाद न कर
ऐ इश्क़ हमें बर्बाद न कर

जी चाहता है इक दूसरे को यूँ आठ पहर हम याद करें
आँखों में बसाएँ ख़्वाबों को और दिल में ख़याल आबाद करें

ख़ल्वत में भी हो जल्वत का समाँ वहदत को दुई से शाद करें
ये आरज़ुएँ ईजाद न कर

ऐ इश्क़ हमें बर्बाद न कर
दुनिया का तमाशा देख लिया ग़मगीन सी है बेताब सी है

उम्मीद यहाँ इक वहम सी है तस्कीन यहाँ इक ख़्वाब सी है
दुनिया में ख़ुशी का नाम नहीं दुनिया में ख़ुशी नायाब सी है

दुनिया में ख़ुशी को याद न कर
ऐ इश्क़ हमें बर्बाद न कर

सोमवार, 25 नवंबर 2024

गोपी- गीत / श्रीमद्भागवत महापुराण - दशमस्कन्ध / स्वर : माधवी मधुकर झा

https://youtu.be/0lZ9eUgQ8sE  



जयति तेऽधिकं जन्मना व्रजः
श्रयत इन्दिरा शश्वदत्र हि ।
दयित दृश्यतां दिक्षु तावका
स्त्वयि धृतासवस्त्वां विचिन्वते ॥1॥

शरदुदाशये साधुजातसत्स-
रसिजोदरश्रीमुषा दृशा ।
सुरतनाथ तेऽशुल्कदासिका
वरद निघ्नतो नेह किं वधः ॥2॥

विषजलाप्ययाद्व्यालराक्षसा-
द्वर्षमारुताद्वैद्युतानलात् ।
वृषमयात्मजाद्विश्वतोभया
दृषभ ते वयं रक्षिता मुहुः ॥3॥

न खलु गोपिकानन्दनो भवा-
नखिलदेहिनामन्तरात्मदृक् ।
विखनसार्थितो विश्वगुप्तये
सख उदेयिवान्सात्वतां कुले ॥4॥

विरचिताभयं वृष्णिधुर्य ते
चरणमीयुषां संसृतेर्भयात् ।
करसरोरुहं कान्त कामदं
शिरसि धेहि नः श्रीकरग्रहम् ॥5॥

व्रजजनार्तिहन्वीर योषितां
निजजनस्मयध्वंसनस्मित ।
भज सखे भवत्किंकरीः स्म नो
जलरुहाननं चारु दर्शय ॥6॥

प्रणतदेहिनांपापकर्शनं
तृणचरानुगं श्रीनिकेतनम् ।
फणिफणार्पितं ते पदांबुजं
कृणु कुचेषु नः कृन्धि हृच्छयम् ॥7॥

मधुरया गिरा वल्गुवाक्यया
बुधमनोज्ञया पुष्करेक्षण ।
विधिकरीरिमा वीर मुह्यती-
रधरसीधुनाऽऽप्याययस्व नः ॥8॥

तव कथामृतं तप्तजीवनं
कविभिरीडितं कल्मषापहम् ।
श्रवणमङ्गलं श्रीमदाततं
भुवि गृणन्ति ते भूरिदा जनाः ॥9॥

प्रहसितं प्रिय प्रेमवीक्षणं
विहरणं च ते ध्यानमङ्गलम् ।
रहसि संविदो या हृदिस्पृशः
कुहक नो मनः क्षोभयन्ति हि ॥10॥

चलसि यद्व्रजाच्चारयन्पशून्
नलिनसुन्दरं नाथ ते पदम् ।
शिलतृणाङ्कुरैः सीदतीति नः
कलिलतां मनः कान्त गच्छति ॥11॥

दिनपरिक्षये नीलकुन्तलै-
र्वनरुहाननं बिभ्रदावृतम् ।
घनरजस्वलं दर्शयन्मुहु-
र्मनसि नः स्मरं वीर यच्छसि ॥12॥

प्रणतकामदं पद्मजार्चितं
धरणिमण्डनं ध्येयमापदि ।
चरणपङ्कजं शंतमं च ते
रमण नः स्तनेष्वर्पयाधिहन् ॥13॥

सुरतवर्धनं शोकनाशनं
स्वरितवेणुना सुष्ठु चुम्बितम् ।
इतररागविस्मारणं नृणां
वितर वीर नस्तेऽधरामृतम् ॥14॥

अटति यद्भवानह्नि काननं
त्रुटिर्युगायते त्वामपश्यताम् ।
कुटिलकुन्तलं श्रीमुखं च ते
जड उदीक्षतां पक्ष्मकृद्दृशाम् ॥15॥

पतिसुतान्वयभ्रातृबान्धवा-
नतिविलङ्घ्य तेऽन्त्यच्युतागताः ।
गतिविदस्तवोद्गीतमोहिताः
कितव योषितः कस्त्यजेन्निशि ॥16॥

रहसि संविदं हृच्छयोदयं
प्रहसिताननं प्रेमवीक्षणम् ।
बृहदुरः श्रियो वीक्ष्य धाम ते
मुहुरतिस्पृहा मुह्यते मनः ॥17॥

व्रजवनौकसां व्यक्तिरङ्ग ते
वृजिनहन्त्र्यलं विश्वमङ्गलम् ।
त्यज मनाक् च नस्त्वत्स्पृहात्मनां
स्वजनहृद्रुजां यन्निषूदनम् ॥18॥

यत्ते सुजातचरणाम्बुरुहं स्तनेष
भीताः शनैः प्रिय दधीमहि कर्कशेषु ।
तेनाटवीमटसि तद्व्यथते न किंस्वित्कू
र्पादिभिर्भ्रमति धीर्भवदायुषां नः ॥19॥

इति श्रीमद्भागवत महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
दशमस्कन्धे पूर्वार्धे रासक्रीडायां गोपीगीतं
नामैकत्रिंशोऽध्यायः ॥