ग़ज़ल
- अरुण मिश्र
हाथ कंगन को ‘अरुन’, दरकार है कब आरसी।
शायरी मेरी जु़बां , क्या हिन्दी , उर्दू , फ़ारसी।।
भोर की किरनें तबस्सुम-ज़ेरे-लब सी फूटतीं।
बोलियां चिड़ियों की, दोशीज़ाओं के गुफ़्तार सी।।
मीत के बिन ज़िन्दगी, इक बोझ है सबके लिये।
कुछ को लगती है ग़रां, मुझको लगे है भार सी।।
अश्व बोलो , अस्प बोलो , उष्ट् या उश्तर कहो।
हो मिलन की चाह पर गंगो-जमुन की धार सी।।
प्यार सी शै है कहॉ , मोहताज़ भाषा के लिये।
चोट भी इसकी है , फूलों की छड़ी की मार सी।।
मुखकमल हो माहरुख़ या चन्द्रमुख, मतलब है एक।
बान नयनों के अगर हैं , तो नज़र तलवार सी।।
भाल पे बेंदी सजी हो , माल उर पर पुरज़माल।
नूपुरों में भी सदा , पाजे़ब के झंकार सी।।
क़ैद तो फिर क़ैद है , तस्बीह हो , ज़ुन्नार हो।
शैख़ भी पाबन्दियां , आइद करे , अग़यार सी।।
बुलबुलों की चहक मीठी , कोयलों की कूक सी।
उपवनों से भी महक , आती तो है , गुलज़ार सी।।
मैं श्रृगालों को शिगाल कह दूँ जो ख़ुश हो जाव तुम।
इससे क्या हो जायेगी , हूऑ-हुऑ हुंकार सी।।
संस्कृत के साहिलों में , फ़ारसी , बहती नदी।
नाव हिन्दी की ‘अरुन’ , उर्दू हुई पतवार सी।।
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आदरणीय अरुण जी
जवाब देंहटाएंआज तो आपको दंडवत प्रणाम करने को जी कर रहा है !
क्य लिखा है सर ! क़ुर्बान !
हिंदी , उर्दू और फ़ारसी के मिठास को एक साथ परोस कर आपने लोहा मनवा लिया … वाह वाऽऽह !
आपकी इस ग़ज़ल के बारे में कोई बहुत बड़ा उस्ताद आलिम कुछ कह पाए तो कहे … हमारी तो कुछ कहने की हालत नहीं रही …
पढ़ूंगा अभी दो-तीन बार और …
ईश्वर आपका स्वास्थ्य बनाए रखे … आपकी लेखनी का प्रसाद सरस्वती हमें दिलवाती रहे … तथास्तु !
हार्दिक बधाई और शुभकामनाएं !
- राजेन्द्र स्वर्णकार
वाह
जवाब देंहटाएंप्रिय राजेंद्र जी,
जवाब देंहटाएंआप की श्रद्धा और आप का अनुराग सर-माथे पर| यह मेरा सम्बल है और पाथेय भी| कृतज्ञ हूँ| शुभकामनायें|
- अरुण मिश्र.
प्रिय काजल कुमार जी, बहुत-बहुत धन्यवाद|
जवाब देंहटाएं- अरुण मिश्र.