(साहित्य अमृत, जनवरी' १२, के मुख पृष्ठ से साभार) |
-अरुण मिश्र.
हुई भोर।
खग - रव गूँजा;
संजीवनि बही पोर-पोर॥
चिड़ियों ने जंगल - जंगल;
बाँटा , सूर्योदय - संदेश ।
मिटा क्लेश , चंहुदिशि मंगल;
अब न रहा, निशि-तम कुछ शेष ॥
दुख का
लवलेश न रहा।
लवलेश न रहा।
सुख-सागर ले नई हिलोर॥
दिनकर ने कर बढ़ा छुआ ,
तालों का एक - एक कमल।
पहले, अरुणाभ कुछ हुआ,
फिर, हिरण्य-वर्ण नील-जल॥
मन का
दारिद्र्य, सब मिटा।
स्वर्ण-वृष्टि , दृष्टि- ओर-छोर॥
खग, मृग, जल-जंतु सब जगे,
जागा मनुजों का संसार।
धरती के भाग्य फिर उजास,
नष्ट सकल कलुष , अन्धकार॥
मस्जिदों में
फिर हुई अजान।
मंदिरों में घंटियों- का शोर ॥
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