अस्तंगत सूर्य को एक अर्घ्य मेरा भी...
- अरुण मिश्र
अस्तंगत सूर्य को एक अर्घ्य मेरा भी ||
दे रहीं असंख्य अर्घ्य,
गंगा की ऊर्मियाँ |
धरती पर जीवन के -
छंद , रचें रश्मियाँ ||
चम्पई उजाला भी , रेशमी अंधेरा भी |
अस्तंगत सूर्य को एक अर्घ्य मेरा भी ||
ऊर्जित कर कण-कण ;
शांत, शमित तेज प्रखर |
विहंगों के कलरव में ,
स्तुति के गीत मुखर ||
ढलता तो रात और उगे तो सवेरा भी |
अस्तंगत सूर्य को एक अर्घ्य मेरा भी ||
उदय-अस्त की माला
को अविरल फेरता |
सृष्टि - चक्र - मर्यादा -
मंत्र , नित्य टेरता ||
जीवन उत्थान-पतन,सुख-दुख का फेरा भी |
अस्तंगत सूर्य को एक अर्घ्य मेरा भी ||
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