उदास शाम को जब ख़ुद से बात करता हूँ
-अरुण मिश्र
उदास शाम को जब ख़ुद से बात करता हूँ
मैं ज़हरे-ज़ीस्त को आबे-हयात करता हूँ
चिराग़े-फ़िक्र सरे-शाम जला लेता हूँ
जिस से रोशन तमाम क़ायनात करता हूँ
तुम्हारी याद का इक चाँद खिला लेता हूँ
अमाँ की रात को भी चाँद-रात करता हूँ
कोई तो नख़्ल उगे काश मन के सहरा में
मैं अपनी आँख को दज़्ला-फ़रात करता हूँ
'अरुन' ज़ुबाँ से सहल हूँ समझ में मुश्किल हूँ
सुख़नवरी में तो ग़ालिब को मात करता हूँ
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