बुधवार, 20 मई 2015
रविवार, 10 मई 2015
मातृ दिवस पर विशेष .......
मातृ दिवस पर विशेष .......
माँ !
-अरुण मिश्र.
सर्व प्रथम तेरी ही गोदी-
में, मैंने माँ ! आँखें खोली।
मेरे कानों में गूँजी माँ !
सब से पहले तेरी बोली।।
 
तेरे आँचल में छुप, पहली-
क्षुधा मिटाने को रोया हूँ।
तेरे चुम्बन से जागा हूँ ;
तेरी थपकी से सोया हूँ।।
 
माँ ! मैं तेरा रक्त-माँस हूँ,
तेरा सब से अधिक सगा हूँ।
इस दुनिया में सब से पहले,
माँ ! मैं तेरे गले लगा हूँ।।
 
तेरी आँखों से ही मैंने,
दुनिया को पहले पहचाना।
तुझ से रिश्ते-नाते समझे;
चन्दा मामा तक को जाना।।
 
माँ कहना भी तुझ से सीखा;
भाषा सीखी तुतला कर है।
मेरा कंठ, तुम्हारी प्रतिध्वनि;
मेरी वाणी, तेरा स्वर है।।
 
गिर-गिर कर, उठना सीखा है;
तेरे बल पर, खड़ा हुआ हूँ।
तुझ से ही जीवन-रस ले कर,
माँ ! मैं इतना बड़ा हुआ हूँ।।
 
तू भी, यूँ निहाल है मुझ से,
मानो कोई मिला ज़ख़ीरा।
मैं चाहे जैसा भी हूँ माँ!
तेरे लिये, सदा हूँ हीरा।।
 
माँ ! तू प्राणों में बसती है;
साँसों में करती है फेरा।
आज, भले ही वृद्ध हो चला,
पर, फिर भी माँ ! शिशु हूँ तेरा।
*
गत वर्ष मातृ दिवस पर पूर्वप्रकाशित
माँ !
-अरुण मिश्र.
सर्व प्रथम तेरी ही गोदी-
में, मैंने माँ ! आँखें खोली।
मेरे कानों में गूँजी माँ !
सब से पहले तेरी बोली।।
तेरे आँचल में छुप, पहली-
क्षुधा मिटाने को रोया हूँ।
तेरे चुम्बन से जागा हूँ ;
तेरी थपकी से सोया हूँ।।
माँ ! मैं तेरा रक्त-माँस हूँ,
तेरा सब से अधिक सगा हूँ।
इस दुनिया में सब से पहले,
माँ ! मैं तेरे गले लगा हूँ।।
तेरी आँखों से ही मैंने,
दुनिया को पहले पहचाना।
तुझ से रिश्ते-नाते समझे;
चन्दा मामा तक को जाना।।
माँ कहना भी तुझ से सीखा;
भाषा सीखी तुतला कर है।
मेरा कंठ, तुम्हारी प्रतिध्वनि;
मेरी वाणी, तेरा स्वर है।।
गिर-गिर कर, उठना सीखा है;
तेरे बल पर, खड़ा हुआ हूँ।
तुझ से ही जीवन-रस ले कर,
माँ ! मैं इतना बड़ा हुआ हूँ।।
तू भी, यूँ निहाल है मुझ से,
मानो कोई मिला ज़ख़ीरा।
मैं चाहे जैसा भी हूँ माँ!
तेरे लिये, सदा हूँ हीरा।।
माँ ! तू प्राणों में बसती है;
साँसों में करती है फेरा।
आज, भले ही वृद्ध हो चला,
पर, फिर भी माँ ! शिशु हूँ तेरा।
*
गत वर्ष मातृ दिवस पर पूर्वप्रकाशित
मंगलवार, 5 मई 2015
ज्येष्ठ के प्रथम बड़ा मंगल पर विशेष.....
ज्येष्ठ के प्रथम बड़ा मंगल पर विशेष 

है आसरा हनुमान जी---
-अरुण मिश्र
जैसे दुख  श्री जानकी जी का  हरा  हनुमान जी।
दुख   हमारे  भी  हरो,  है  आसरा  हनुमान जी।।
देह   कुंदन,  भाल   चंदन,  केसरी  नंदन  प्रभो।
ध्यान इस छवि का सदा हमने धरा हनुमान जी।।
लॉघ  सागर,  ले  उड़े,  संजीवनी  परबत सहज।
क्रोध,  कौतुक में  दिया लंका जरा  हनुमान जी।।
मुद्रिका दी,  वन  उजारा  और  अक्षय को हना।
शक्ति का  आभास पा,  रावन डरा  हनुमान जी।।
राम के तुम काम आये, काम क्या तुमको कठिन। 
कौन   संकट,  ना   तेरे   टारे  टरा  हनुमान जी।।
चरणकमलों में तिरे निसिदिन 'अरुण' का मन रमे।
हो  हृदय  में  भक्ति का  सागर भरा   हनुमान जी।।
                         
                                *
(पूर्वप्रकाशित)
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