इन्द्रकृत महालक्ष्मी अष्टकम्
का काव्य-भावानुवाद
-अरुण मिश्र.
तुम्हें प्रणाम महामाया हे ! श्रीपीठ-स्थित, सुरगण-पूजित।
शंख, चक्र औ’ गदा लिये कर, महालक्ष्मी तुम्हें नमन है।।
नमन तुम्हें हे गरुड़ारूढ़ा ! कोलासुर के हेतु भयङ्करि !
देवि ! समस्त पाप हरती हो; महालक्ष्मी तुम्हें नमन है।।
हे सर्वज्ञ ! सर्व-वरदे माँ ! सर्व दुष्ट-जन को भय देतीं।
सर्व दुःख हर लेतीं देवी; महालक्ष्मी तुम्हें नमन है।।
सिद्धि-बुद्धि सब देने वाली, भोग अरु मोक्ष प्रदायिनि! माता।
मन्त्र-पूत हे देवि सर्वदा ! महालक्ष्मी तुम्हें नमन है।।
तुम आद्यन्त-रहित हो देवी, आदिशक्ति हो महेश्वरी हो।
प्रकट और सम्भूत योग से; महालक्ष्मी तुम्हें नमन है।।
स्थूल, सूक्ष्म हो, महारौद्र हो, महाशक्ति हो, महोदरा हो।
महापापहारिणि हे देवी ! महालक्ष्मी तुम्हें नमन है।।
तुम पद्मासन पर संस्थित हो, हे परब्रह्मस्वरूपिणि देवी!
हे परमेश्वरि ! हे जग-माता ! महालक्ष्मी तुम्हें नमन है।।
श्वेताम्बर धारे हो देवी, नानालङ्कारों से भूषित।
जगत-मात हो, जगत-व्याप्त हो,महालक्ष्मी तुम्हें नमन है।।
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(इतीन्द्रकृतं महालक्ष्म्यष्टकं सम्पूर्णम् )
महात्म्य एवं पाठ-फल :
महालक्ष्मी-अष्टक स्तुति यह, जो भी नर पढ़े भक्ति से।
सर्व सिद्धि उस को मिलती है; सदा राज्य-वैभव है पाता।।
प्रति दिन एक बार जो पढ़ता, महापाप उस के धुल जाते।
जो दो बार नित्य पढ़ता है, होता है धन-धान्य समन्वित।।
तीन बार जो पढ़ता, उस के महाशत्रु तक का विनाश हो।
नित्य महालक्ष्मी प्रसन्न हों, वरदायिनि, कल्याणकारिणी।।
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मूल संस्कृत :
इन्द्र उवाच
नमस्तेस्तु महामाये श्रीपीठे सुरपूजिते।
शङ्खचक्रगदाहस्ते महालक्ष्मि नमोस्तु ते॥
नमस्ते गरुडारूढे कोलासुरभयङ्करि।
सर्वपापहरे देवि महालक्ष्मि नमोस्तु ते॥
सर्वज्ञे सर्ववरदे सर्वदुष्टभयङ्करि।
सर्वदुःखहरे देवि महालक्ष्मि नमोस्तु ते॥
सिद्धिबुद्धिप्रदे देवि भुक्तिमुक्तिप्रदायिनी।
मन्त्रपूते सदा देवि महालक्ष्मि नमोस्तु ते॥
आद्यन्तरहिते देवि आद्यशक्तिमहेश्वरि।
योगजे योगसम्भूते महालक्ष्मि नमोस्तु ते॥
स्थूलसूक्ष्ममहारौद्रे महाशक्तिमहोदरे।
महापापहरे देवि महालक्ष्मि नमोस्तु ते॥
पद्मासनस्थिते देवि परब्रह्मस्वरूपिणि।
परमेशि जगन्मातर्महालक्ष्मि नमोस्तु ते॥
श्वेताम्बरधरे देवि नानालङ्कार् भूषिते।
जगतिस्थते जगन्मातर्महालक्ष्मि नमोस्तु ते॥
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(इतीन्द्रकृतं महालक्ष्म्यष्टकं सम्पूर्णम् )
महालक्ष्म्यष्टकं स्तोत्रं यः पठेद्भक्तिमान्नरः।
सर्वसिद्धिमवाप्नोति राज्यं प्राप्नोति सर्वदा॥
एककाले पठेन्नित्यं महापापविनाशनम्।
द्विकालं यः पठेन्नित्यं धनधान्यसमन्वितः॥
त्रिकालं यः पठेन्नित्यं महाशत्रुविनाशनम्।
महालक्ष्मीर्भवेन्नित्यं प्रसन्ना वरदा शुभा॥
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(पुनर्प्रकाशित)
बहुत ही सुंदर
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