गुरुवार, 22 नवंबर 2018

महर्षि वाल्मीकि कृत श्री गंगाष्टक का भावानुवाद



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जय गंगा मैया 
https://youtu.be/UKUpawzDdY8

 ( टिप्पणी  :  यह भावानुवाद , पवित्र  श्रृंगवेर पुर घाट , जनपद प्रयाग की 
सीढ़ियों पर  जुलाई 1995 में हुआ था। इस गंगाष्टक में आदिकवि महर्षि 
वाल्मीकि ने गंगा को लेकर बड़ी ही मनोहारी, लालित्यपूर्ण एवं  भावमयी  
कल्पनायें की हैं, जिनका कृतज्ञतापूर्वक अनुवाद कर पुण्यलाभ लेते हुये 
धन्य होने के लोभ का संवरण मेरा कवि-मन न कर सका। मैं इसके लिये 
उन अनाम पंडित जी का भी कृतज्ञ हूँ  , जिन्हें गंगास्नान करते हुये इसका 
पाठ करते सुन कर,मेरे मन में इस भावानुवाद की प्रेरणा जाग्रत हुई | )
(पूर्वप्रकाशित ) 

अथ श्री गंगाष्टक भावानुवाद
- अरुण मिश्र
माता    शैलपुत्री    की   सहज   सपत्नी   तुम,
धरती  का   कंठहार  बन  कर  सुशोभित हो।
स्वर्ग-मार्ग  की  हो तुम  ध्वज-वैजयन्ती मॉ-
भागीरथी !  बस   तुमसे   इतनी   है   प्रार्थना-

बसते   हुये   तेरे  तीर,  पीते  हुये   तेरा  नीर,
होते     तरंगित     गंग ,    तेरे   तरंगों   संग।
जपते तव नाम, किये तुझ पर समर्पित दृष्टि,
व्यय   होवे   मॉं !    मेरे   नश्वर    शरीर   का।।

मत्त   गजराजों    के    घंटा - रव   से   सभीत -
शत्रु - वनिताओं   से    वन्दित   भूपतियों  से -
श्रेष्ठ ,    तव     तीर-तरु-कोटर-विहंग ,    गंग ;
तव  नर्क-नाशी-नीर-वासी ,  मछली-कछुआ ||

कंकण स्वर युक्त, व्यजन  झलती बालाओं से -
शोभित   भूपाल   अन्यत्र  का ,  न  अच्छा है |
सहूँ   जन्म-मरण-क्लेश,  रहूँ   तेरे  आर-पार ,
भले  गज,  अश्व,  वृषभ,  पक्षी  या  सर्प   बनूँ  ||
नोचें  भले   काक - गीध ,   खाएं  भले  श्वान-वृन्द ,
देव  -  बालाएं      भले ,     चामर      झलें    नहीं |
धारा-चलित, तटजल-शिथिल, लहरों से आन्दोलित,
भागीरथि !    देखूँगा   कब   अपना   मृत   शरीर।।

हरि  के  चरण कमलों  की   नूतन  मृणाल सी है;
माला,  मालती   की   है   मन्मथ  के   भाल  पर।
जय  हो    हे !  विजय-पताका  मोक्ष-लक्ष्मी  की;
कलि-कलंक-नाशिनि,  जाह्नवी ! कर पवित्र हमें।।

साल,  सरल,  तरु-तमाल,  वल्लरी-लताच्छादित,
सूर्यताप-रहित, शंख,  कुन्द,  इन्दु  सम उज्ज्वल।
देव -  गंधर्व -  सिद्ध -   किन्नर -   वधू -  स्पर्शित,
स्नान   हेतु   मेरे   नित्य,  निर्मल   गंगा-जल  हो।।

चरणों    से   मुरारी    के,   निःसृत   है   मनोहारी,
गंगा  -  वारि ,  शोभित   है   शीश   त्रिपुरारी   के।
ऐसी    पापहारी    मॉ - गंगा   का ,   पुनीत   जल,
तारे   मुझे   और   मेरा  तन - मन   पवित्र   करे।।

करती     विदीर्ण     गिरिराज  -   कंदराओं    को ,
बहती  शिलाखंडों  पर  अविरल  गति  से  है  जो;
पाप    हरे ,    सारे     कुकर्मों    का    नाश    करे ,
ऐसी      तरंगमयी      धारा ,     माँ - गंगा     की ||

कल-कल   रव   करते,   हरि- पद-रज  धोते हुए ,
सतत   शुभकारी,   गंग-वारि   कर   पवित्र  मुझे ||
                                *
वाल्मीकि - विरचित  यह  शुभप्रद  जो नर नित्य-
गंगाष्टक    पढ़ता    है    ध्यान    धर    प्रभात   में |
कलि-कलुष-रूपी   पंक ,  धो  कर  निज  गात्र  की ,
पाता   है   मोक्ष ;   नहीं  गिरता   भव - सागर   में ||
                            ***
" इति श्री वाल्मीकि -विरचित गंगाष्टक का भावानुवाद संपूर्ण |"

मूल संस्कृत पाठ :
॥ गङ्गाष्टकं श्रीवाल्मिकिविरचितम् ॥

मातः शैलसुता-सपत्नि वसुधा-शृङ्गारहारावलि
स्वर्गारोहण-वैजयन्ति भवतीं भागीरथीं प्रार्थये ।
त्वत्तीरे वसतः त्वदंबु पिबतस्त्वद्वीचिषु प्रेङ्खतः
त्वन्नाम स्मरतस्त्वदर्पितदृशः स्यान्मे शरीरव्ययः ॥ १॥

त्वत्तीरे तरुकोटरान्तरगतो गङ्गे विहङ्गो परं
त्वन्नीरे नरकान्तकारिणि वरं मत्स्योऽथवा कच्छपः ।
नैवान्यत्र मदान्धसिन्धुरघटासंघट्टघण्टारण-
त्कारस्तत्र समस्तवैरिवनिता-लब्धस्तुतिर्भूपतिः ॥ २॥

उक्षा पक्षी तुरग उरगः कोऽपि वा वारणो वाऽ-
वारीणः स्यां जनन-मरण-क्लेशदुःखासहिष्णुः ।
न त्वन्यत्र प्रविरल-रणत्किङ्किणी-क्वाणमित्रं
वारस्त्रीभिश्चमरमरुता वीजितो भूमिपालः ॥ ३॥

काकैर्निष्कुषितं श्वभिः कवलितं गोमायुभिर्लुण्टितं
स्रोतोभिश्चलितं तटाम्बु-लुलितं वीचीभिरान्दोलितम् ।
दिव्यस्त्री-कर-चारुचामर-मरुत्संवीज्यमानः कदा
द्रक्ष्येऽहं परमेश्वरि त्रिपथगे भागीरथी स्वं वपुः ॥ ४॥

अभिनव-बिसवल्ली-पादपद्मस्य विष्णोः
मदन-मथन-मौलेर्मालती-पुष्पमाला ।
जयति जयपताका काप्यसौ मोक्षलक्ष्म्याः
क्षपित-कलिकलङ्का जाह्नवी नः पुनातु ॥ ५॥

एतत्ताल-तमाल-साल-सरलव्यालोल-वल्लीलता-
च्छत्रं सूर्यकर-प्रतापरहितं शङ्खेन्दु-कुन्दोज्ज्वलम् ।
गन्धर्वामर-सिद्ध-किन्नरवधू-तुङ्गस्तनास्पालितं
स्नानाय प्रतिवासरं भवतु मे गाङ्गं जलं निर्मलम् ॥ ६॥

गाङ्गं वारि मनोहारि मुरारि-चरणच्युतम् ।
त्रिपुरारि-शिरश्चारि पापहारि पुनातु माम् ॥ ७॥

पापापहारि दुरितारि तरङ्गधारि
शैलप्रचारि गिरिराज-गुहाविदारि ।
झङ्कारकारि हरिपाद-रजोपहारि
गाङ्गं पुनातु सततं शुभकारि वारि ॥ ८॥

गङ्गाष्टकं पठति यः प्रयतः प्रभाते
वाल्मीकिना विरचितं शुभदं मनुष्यः ।
प्रक्षाल्य गात्र-कलिकल्मष-पङ्क-माशु
मोक्षं लभेत् पतति नैव नरो भवाब्धौ ॥ ९॥

॥ इति वाल्मीकिविरचितं गङ्गाष्टकं सम्पूर्णम् ॥



सोमवार, 12 नवंबर 2018

ओडिसी नृत्य का वैभव / केडे छँदा जानालो सही.../ भक्त कवि बनमाली दास / सुजाता मोहापात्रा

https://youtu.be/PGrgqMP4mYs 

THE CHARM OF ODISSI DANCE  

Watch the 16 minutes of mesmerising performance 
and immerse yourself in joy and devotion through subtitles in English.


THE POEM : “Kede chhanda janalo sahi Nanda rajara tiki pilati”

is written by great Oriya poet Banamali, which
depicts different episodes from Krishna Leela
such as Bakasura, Shakatasura, Kaliyadamana
and ends with little Krishna showing all universe
(viswarupa) by opening his mouth in front of his
mother Yasoda, who, realising the divinity of her
son, forgets to scold him for his mischief.

THE PERFORMANCE : This performance by
Sujata Mohapatra depicts a conversation among
Gopis about the achievements of little Krishna as
the lyrics goes -.
"What tricks that little boy of Nanda Raja Knows!"

THE POET : Banamali Dasa (1720–1793) is an 
Indian medieval Odia bhakta-poet from the state 
of Odisha. His songs are popularly sung in festivals
public gatherings and in Odissi dance. 

THE DANCER : Guru Sujata Mohapatra was born 
in Balasore in 1968. She started learning Odissi at 
an early age from Guru Sudhakar Sahu.
Sujata Mohapatra came to Bhubaneshwar
Odisha, in 1987 to further her training under 
at Odissi Research Center in Bhubaneshwar. 

She holds a master's degree in Oriya Literature from
Utkal University. She married Ratikant Mohapatra,
a dance Guru and son of Guru Kelucharan Mohapatra. 


Raaga : Mishra Pilu Tala : Rupak Choreography : Guru Kelucharan Mohapatra
Music  : Pandit Bhubaneswar Mishra

(SOURCE COURTESY INTERNET SEARCHES)
                                                                                                

मंगलवार, 6 नवंबर 2018

आरति श्री लक्ष्मी-गणेश की ....



         

                    *आरती* 

आरति   श्री  लक्ष्मी-गणेश   की | 
धन-वर्षणि की,शमन-क्लेश की ||
             
             दीपावलि     में     संग     विराजें |
             कमलासन - मूषक     पर    राजें |
             शुभ  अरु  लाभ,   बाजने    बाजें |
           
ऋद्धि-सिद्धि-दायक -  अशेष  की || 

    
             मुक्त - हस्त    माँ,   द्रव्य    लुटावें |
             एकदन्त,    दुःख      दूर    भगावें |  
             सुर-नर-मुनि सब जेहि जस  गावें |
             

बंदउं,  सोइ  महिमा विशेष  की ||


             विष्णु-प्रिया, सुखदायिनि  माता |
             गणपति,  विमल  बुद्धि  के  दाता |
             श्री-समृद्धि,  धन-धान्य    प्रदाता |

मृदुल  हास  की, रुचिर  वेश की ||
माँ लक्ष्मी, गणपति  गणेश  की ||

                                 * 

                                                                       -अरुण मिश्र  

(पूर्वप्रकाशित)

गुरुवार, 1 नवंबर 2018

जटाटवी गलज्जलप्रवाहपावितस्थले


https://youtu.be/uaUOPEYvQCc

SONG : SHIV TANDAV STOTRAM
BY SHANKAR MAHADEVAN
CONCEPT AND CHOREOGRAPHY - 
SAYANI CHAKRABORTY

The song "Shiv Tandav Stotram" is said 
to be a creation of Mahapandit 'Ravana'.
Tandava performed by Lord Shiva who 
is also known as "Natraja", the God of 
dance is the dance of passion, anger and 
intense energy.
Here in this presentation Sayani has tried 
'Rudra Tandav' based on 'Bharatnatyam' 
dance form with devotional and spiritual 
take on the song.

Only following six stanzas of 
"Shiv Tandav Stotram" has been 
used in this video. The Sanskrit 
text of these along with their 
Hindi Translation attempted by me 
are given below to make the poetry 
and the dance fully enjoyable.

जटाटवी गलज्जलप्रवाहपावितस्थले, 
गलेऽवलम्ब्य लम्बितां भुजङ्ग तुङ्ग मालिकाम् |
डमड्डमड्डमड्डमन्निनाद वड्डमर्वयं, 

चकार चण्डताण्डवं तनोतु नः शिवः शिवम् ||१||

जटा - वन - निःसृत,   गंगजल    के   प्रवाह   से-
पावन     गले,    विशाल     लम्बी     भुजंगमाल।
डम्-डम्-डम्, डम्-डम्-डम्, डमरू-स्वर पर प्रचंड,
करते   जो   तांडव,  वे   शिव  जी,  कल्याण  करें।।

जटा कटाहसंभ्रमभ्रमन्निलिम्पनिर्झरी, 
विलोलवीचिवल्लरी विराजमान मूर्धनि |
धगद्धगद्धगज्ज्वलल्ललाट पट्ट पावके 

किशोर चन्द्र शेखरे रतिः प्रतिक्षणं मम ||२||

जटा     के     कटाह    में,    वेगमयी    गंग    के,
चंचल   तरंग - लता   से   शोभित   है    मस्तक।
धग् - धग् - धग्  प्रज्ज्वलित पावक  ललाट पर;
बाल - चन्द्र - शेखर  में   प्रतिक्षण  रति  हो मेरी।।


जटाभुजङ्गपिङ्गलस्फुरत्फणामणिप्रभा 
कदम्बकुङ्कुमद्रवप्रलिप्तदिग्वधूमुखे |
मदान्धसिन्धुरस्फुरत्त्वगुत्तरीयमेदुरे 

मनो विनोदमद्भुतं बिभर्तुभूतभर्तरि ||४||

जटा   के   भुजंगो   के   फणों  के   मणियों   की-
पिंगल  प्रभा, दिग्वधुओं  के  मुख   कुंकुम  मले।
स्निग्ध,   मत्त - गज - चर्म - उत्तरीय  धारण  से,
भूतनाथ   शरण,    मन   अद्भुत     विनोद   लहे।।


प्रफुल्लनीलपङ्कजप्रपञ्चकालिमप्रभा- 
वलम्बि कण्ठकन्दली रुचिप्रबद्ध कन्धरम् |
स्मरच्छिदं पुरच्छिदं भवच्छिदं मखच्छिदं 

गजच्छिदांधकच्छिदं तमंतकच्छिदं भजे ||९||

खिले नील कमलों की,  श्याम वर्ण  हरिणों की,
श्यामलता से  चिह्नित, जिनकी  ग्रीवा  ललाम।
स्मर,पुर,भव, मख, गज, तम औरअन्धक का,
उच्छेदन  करते  हुये  शिव  को,  मैं   भजता हूँ।।


अखर्वसर्वमङ्गला कलाकदंबमञ्जरी 
रस प्रवाह माधुरी विजृंभणा मधुव्रतम् |
स्मरान्तकं पुरान्तकं भवान्तकं मखान्तकं 
गजान्तकान्धकान्तकं तमन्तकान्तकं भजे ||१०||

मंगलमयी   गौरी    के    कलामंजरी  का   जो-
चखते    रस - माधुर्य,   लोलुप    मधुप     बने।
स्मर,पुर,भव, मख, गज, तम और अन्धक के,
हैं जो  विनाशक, उन  शिव को  मैं   भजता  हूँ।।


इदम् हि नित्यमेवमुक्तमुत्तमोत्तमं स्तवं 
पठन्स्मरन्ब्रुवन्नरो विशुद्धिमेतिसंततम् |
हरे गुरौ सुभक्तिमाशु याति नान्यथा गतिं 

विमोहनं हि देहिनां सुशङ्करस्य चिंतनम् ||१४||

उत्तमोत्तम   इस   स्तुति  को   जो  नर  नित्य,
पढ़ता,   कहता   अथवा    करता   है   स्मरण।
पाता  शिव - भक्ति;  नहीं पाता  गति अन्यथा;
प्राणी   हो  मोहमुक्त,  शंकर   के   चिन्तन  से।।

                                *