-अरुण मिश्र
बिन तुम्हारे,फिर न मन पाई दिवाली;
रात भर मैं चाँद को रोता रहा हूँ ||
हर पड़ोसी ने सजाई दीपमाला,
हर तरफ बिखरा पड़ा उत्साह, रूपसि!
एक स्मृति - वर्तिका, उर में जलाये,
देखता पर मन, तुम्हारी राह, रूपसि !!
हर तरफ जलते असंख्यों दीप,
पर मैं रात सारी,
मोम सा गलता, जमा होता रहा हूँ ||
फुलझड़ी की जगह, आँसू की झड़ी थी |
वर्जनायें, राह को रोके खड़ी थीं |
गेह मेरा, बहुत सूना लग रहा था ;
जब कि, सबके द्वार पर लक्ष्मी खड़ी थीं ||
लोग आतिशबाजियों में जब मगन थे,
तब स्वयं मैं,
ढेर इक , बारूद का होता रहा हूँ ||
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