प्रिय राजेंद्र जी, स्नेहाभिवादन| समस्या पूर्ति मंच पर आपके अत्यंत मनोहारी हरिगीतिका छंद देखे| सभी छंद सुन्दर हैं| छंद परम्परा को जीवित रखने के आप के प्रयास के लिए साधुवाद| कथ्य और शिल्प दोनों ही दृष्टि से यह दो छंद मुझे बहुत अच्छे लगे|शुभकामनायें | -अरुण मिश्र.
1."इक पल लगे मन शांत ; सागर में कभी हलचल लगे! प्रत्यक्ष हो कोई प्रलोभन किंतु मन अविचल लगे ! प्रिय के सिवा सब के लिए मन-द्वार पर 'सांकल' लगे ! प्रतिरूप प्रिय परमातमा का , प्रेम में प्रति-पल लगे !"
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आदरणीय अरुण मिश्र जी
सस्नेहाभिवादन ! सादर प्रणाम !!
अस्तंगत सूर्य को एक अर्घ्य आपके स्वर में सुन कर मन प्रसन्न हो गया …
आभार !
बधाई और मंगलकामनाओं सहित…
- राजेन्द्र स्वर्णकार
आज आपको मेल भेजी है , उसे भी देखिएगा सरजी !!
जवाब देंहटाएंप्रिय राजेंद्र जी,
जवाब देंहटाएंस्नेहाभिवादन|
समस्या पूर्ति मंच पर आपके अत्यंत मनोहारी हरिगीतिका छंद देखे| सभी छंद सुन्दर हैं| छंद परम्परा को जीवित रखने के आप के प्रयास के लिए साधुवाद| कथ्य और शिल्प दोनों ही दृष्टि से यह दो छंद मुझे बहुत अच्छे लगे|शुभकामनायें |
-अरुण मिश्र.
1."इक पल लगे मन शांत ; सागर में कभी हलचल लगे!
प्रत्यक्ष हो कोई प्रलोभन किंतु मन अविचल लगे !
प्रिय के सिवा सब के लिए मन-द्वार पर 'सांकल' लगे !
प्रतिरूप प्रिय परमातमा का , प्रेम में प्रति-पल लगे !"
2."बणग्यो अमी ; विष…प्रीत कारण, प्रीत मेड़तणी करी !
प्रहलाद-बळ हरि आप ; नैड़ी आवती मिरतू डरी !
हरि-प्रीत सूं पत लाज द्रोपत री झरी नीं , नीं क्षरी !
राजिंद री अरदास सायब ! प्रीत थे करज्यो 'खरी' !"