-अरुण मिश्र
गंगा के तीर एक ऊँची पहाड़ी पर ,
अष्टभुजी माँ की पताका लहराती है |
विन्ध्य-क्षेत्र का है, माँ सिद्ध-पीठ तेरा घर ,
आ के यहाँ भक्तों को सिद्धि मिल जाती है |
जर्जर, भव-सागर के ज्वार के थपेड़ो से ,
जीवन के तरनी को पार तू लगाती है |
जो है बड़भागी, वही आता है शरण तेरे ,
तेरे चरण छू कर ही, गंग, बंग जाती है ||
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आठ भुजा वाली, हे! अष्टभुजी मैय्या, निज-
बालक की विनती को करना स्वीकार माँ |
जननी जगत की तुम, पालतीं जगत सारा ,
तेरी शरण आ के, जग पाए उद्धार माँ |
तुम ने सुनी है सदा सब की पुकार , आज-
कैसे सुनोगी नहीं मेरी पुकार माँ |
दुष्ट -दल -दलन हेतु , काफ़ी है एक भुजा ,
शेष सात हाथन ते , भक्तन को तार माँ ||
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टिप्पणी : वर्ष १९९५ में इन छंदों की रचना माँ अष्टभुजी देवी, (विन्ध्याचल,उ.प्र.) के चरणों में हुई थी |
(पूर्वप्रकाशित )