मैं और तू......अल्लामा इक़बाल
Main aur Tu | मैं और तू
न सलीक़ा मुझ में कलीम का, न क़रीना तुझ में ख़लील का
मैं हलाक-ए-जादू-ए-सामरी, तू क़तील-ए-शैवा-ए-आज़री।
मैं नवाए सोख़्ता दर गुलु, तू परीदा रंग, रमीदा बू
मैं हिकायत-ए-ग़म-ए-आरज़ू, तू हदीस-ए-मातम-ए-दिलबरी।
मेरा ऐश ग़म, मेरा शहद सम, मेरी बूद हमनफ़स-ए-अदम
तेरा दिल हरम, गरव-ए-अजम, तेरा दीं ख़रीदा-ए-काफ़िरी।
दम-ए-ज़िन्दगी, रम-ए-ज़िन्दगी, ग़म-ए-ज़िन्दगी, सम-ए-ज़िन्दगी
ग़म-ए-रम न कर, सम-ए-ग़म न खा क: यही है शान-ए-क़लन्दरी।
तेरी ख़ाक में है अगर शरर तो ख़्याल-ए-फ़क़्र-ओ-ग़ना न कर
क: जहाँ में नान-ए-शईर पर है मदार-ए-क़ुव्वत-ए-हैदरी।
कोई ऐसी तर्ज़-ए-तवाफ़ तू मुझे ऐ चराग़-ए-हरम बता
क: तेरे पतंग को फिर अता हो वही सरिश्त-ए-समन्दरी।
गिला-ए-जफ़ा-ए-वफ़ानुमा क: हरम को अहले-हरम से है
किसी बुतकदे में बयाँ करूँ तो कहे सनम भी 'हरि-हरि'।
न सतीज़ागाहे जहाँ नई, न हरीफ़े पंजाफ़िगन नए
वही फ़ितरत-ए-असदुल्लही वही मरहबी वही अन्तरी।
करम ऐ शहे अरब-ओ-अजम क: खड़े हैं मुन्तज़िर-ए-करम
वो गदा क: तूने अता किया है जिन्हें दिमाग़-ए-सिकन्दरी।
*
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें