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रविवार, 18 नवंबर 2012

मेरी ग़ज़ल को तनहा नहीं गुनगुनाइये ......

ग़ज़ल 

मेरी ग़ज़ल को तन्हा नहीं गुनगुनाइये ......

-अरुण मिश्र . 


मेरी   ग़ज़ल   को    तन्हा  नहीं    गुनगुनाइये।
खुलिये  भी  ज़रा,  सुर  से  मेरे  सुर मिलाइये।।


अब  इतना  भी  नादान  नहीं, ये भी न समझूँ।
ग़ुंचा,  लबो  -रुख़सार   पे  क्यूँ  कर  फिराइये।।


खि़रमन हैं,  खेतियां हैं,  नशेमन हैं,  चमन हैं।
जल्वे  के    इन्तज़ार  में,   बिजली   गिराइये।।


सैय्याद  कौन,  कैसा  क़फ़स, तीलियाँ  कैसी?
बुलबुल  को   है  आराम  बहुत,  आप  जाइये।।


होती  न  पस्तियां  मिरी,  उसकी  बुलन्दियां।
तो   कौन   पूछता   उसे,   यह   तो    बताइये??


हर शै  में  नुमायां भी  है,  परदे  में  भी  निहां।
आँखों  पे,  भरम  का  है,  जो  परदा,  हटाइये।।


वो मिस्ले-मुश्क़ हो, या ‘अरुन’ इश्क़ की तरह।
तब तक  तलाशिये उसे,  जब  तक  न  पाइये।।
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