मंगलवार, 19 अप्रैल 2011

फूल को सोचूँ ...

फूल को  सोचूँ ...

 ग़ज़ल  



-अरुण मिश्र 


बारहा  यूँ   भी,  तसव्वुर   में    बहार   आये है।    
फूल को  सोचूँ    तो,  इक चेहरा  उभर आये है।।

     
जब भी सावन में कभी छाये है  कजरारी घटा।    
फिर  वही  ज़ुल्फ,   मेरी  ऑखों में  लहराये है।।


तन सनोवर हुआ, शाखों के लचकने की अदा।    
हाथ गलबहियों की ख़ातिर,  कोई लपकाये है।।

     
जब भी ख़्यालों में  हसीं लब वो ज़रा थिरके हैं।    
पंखरी - पंखरी    फूलों    की,   बिखर  जाये है।।

     
क़ौसरे-ख़ुल्द  है, ऑखें  हैं  कि, मय की झीलें।    
किश्ती-ए-फ़िक्र,  भॅवर  से  कहाँ  बच पाये है।।

     
और  भी  कस के लिपटती  हैं,  शज़र से बेलें।    
जब   बदन   बादे-बहारी   से,  सिहर  जाये है।।

     
कभी आहिस्ता, कभी तेज, धड़कता है  दिल।    
चाल शोख़ी भरी, इस कल को भी भरमाये है।।

         
उस सबुकसैर के पा किब्लानुमा,मन है मुरीद।    
वो  जिधर जायें,  मेरा मन भी, उधर जाये है।।

         
कातती सूत कभी,  चॉद में बुढ़िया  न दिखी।    
चॉद दुल्हन  सा  सदा,  बदली  में शरमाये है।।

     
मुश्क़ हो,  इश्क़ हो,   ख़ुश्बू  के नाम  हैं  सारे।    
यार हो,  रब हो,  लगन जिसमें,  वही पाये है।।

     
ये चटख़ रंग 'अरुन’ और ये शोख़ी, ये उड़ान।    
तितली-तितली,उसी महबूब के,गुन गाये है।।
                                 *

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