अथ शिवताण्डवस्तोत्रम्
रावणकृत शिवताण्डवस्तोत्रम् का भावानुवाद... रावणकृत यह शिवताण्डव स्तोत्र न केवल भक्ति एवं भाव के दृष्टि से अनुपम है
अपितु, काव्य की दृष्टि से भी अद्भुत है। इसकी लयात्मकता, छन्द- प्रवाह, ध्वनि-सौष्ठव,
अलंकार-छटा, रस-सृष्टि एवं चित्रात्मक संप्रेषणीयता सब कुछ अत्यन्त आकर्षक एवं
मनोहारी है। यह अप्रतिम रचना महामना रावण के विनयशीलता, पाण्डित्य एवं
काव्य-लाघव का उत्कृष्ट उदाहरण है।
अनन्य भक्ति की गंगा, प्रवहमान स्वर-ध्वनि की यमुना एवं उत्कृष्ट काव्य की
सरस्वती की इस त्रिवेणी में अवगाहन के पुण्यलाभ के कृतज्ञतास्वरूप इसके भावानुवाद
का अकिंचन प्रयास किया है। आप भी पुण्यलाभ लें।
भगवान शिव मेरा एवं समस्त लोक का कल्याण करें।
-अरुण मिश्र.
‘‘अथ शिवताण्डवस्तोत्रम्’’
जटा - वन - निःसृत, गंगजल के प्रवाह से-
पावन गले, विशाल लम्बी भुजंगमाल।
डम्-डम्-डम्, डम्-डम्-डम्, डमरू-स्वर पर प्रचंड,
करते जो तांडव, वे शिव जी, कल्याण करें।।
जटा के कटाह में, वेगमयी गंग के,
चंचल तरंग - लता से शोभित है मस्तक।
धग् - धग् - धग् प्रज्ज्वलित पावक ललाट पर;
बाल - चन्द्र - शेखर में प्रतिक्षण रति हो मेरी।।
गिरिजा के विलास हेतु धारित शिरोभूषण से,
भासित दिशायें देख, प्रमुदित है मन जिनका।
जिनकी सहज कृपादृष्टि, काटे विपत्ति कठिन,
ऐसे दिगम्बर में, मन मेरा रमा रहे।।
जटा के भुजंगो के फणों के मणियों की-
पिंगल प्रभा, दिग्वधुओं के मुख कुंकुम मले।
स्निग्ध, मत्त - गज - चर्म - उत्तरीय धारण से,
भूतनाथ शरण, मन अद्भुत विनोद लहे।।
इन्द्र आदि देवों के शीश के प्रसूनों की-
धूलि से विधूसर है, पाद-पीठिका जिनकी।
शेष नाग की माला से बाँधे जटा - जूट,
चन्द्रमौलि, चिरकालिक श्री का विस्तार करें।।
ललाटाग्नि ज्वाला के स्फुलिंग से जिसके-
दहे कामदेव, और इन्द्र नमन करते हैं।
चन्द्र की कलाओं से शोभित मस्तिष्क जटिल,
भाल-पट्ट पर कराल,धग-धग-धग जले ज्वाल,
जिसकी प्रचंडता में पंचशर होम हुये।
गौरी के कुचाग्रों पर पत्र - भंग - रचना के-
एकमेव शिल्पी, हो त्रिलोचन में रति मेरी।।
रात्रि अमावस्या की, घिरे हों नवीन मेघ,
ऐसा तम, जिनके है कंठ में विराजमान।
चन्द्र और गंग की कलाओं को शीश धरे-
जगत्पिता शिव, मेरे श्री का विस्तार करें।।
खिले नील कमलों की, श्याम वर्ण हरिणों की,
श्यामलता से चिह्नित, जिनकी ग्रीवा ललाम।
स्मर,पुर,भव, मख, गज, तम औरअन्धक का,
उच्छेदन करते हुये शिव को, मैं भजता हूँ।।
मंगलमयी गौरी के कलामंजरी का जो-
चखते रस - माधुर्य, लोलुप मधुप बने।
स्मर,पुर,भव, मख, गज, तम और अन्धक के,
हैं जो विनाशक, उन शिव को मैं भजता हूँ।।
भ्रमित भुजंगों के तीव्र निःश्वासों से-
और भी धधकती है, भाल की कराल अग्नि।
धिमि-धिमि-धिमि मंगल मृदंगों की तुंग ध्वनि-
पर, प्रचंड ताण्डवरत्, शिव जी की जय होवे।।
पत्तों की शैय्या और सुन्दर बिछौनों में;
सर्प - मणिमाल, और पत्थर में, रत्नों में।
तृण हो या कमलनयन तरुणी; राजा - प्रजा;
सब में सम भाव, सदा ऐसे शिव को भजूँ।।
गंगा तट के निकुंज - कोटर में रहते हुये,
दुर्मति से मुक्त और शिर पर अंजलि बॉधे।
विह्वल नेत्रों में भर छवि ललाम - भाल की,
जपता शिवमंत्र, कब होऊँगा सुखी मैं।।
उत्तमोत्तम इस स्तुति को जो नर नित्य,
पढ़ता, कहता अथवा करता है स्मरण।
पाता शिव - भक्ति; नहीं पाता गति अन्यथा;
प्राणी हो मोहमुक्त, शंकर के चिन्तन से।।
शिव का कर पूजन, जो पूजा की समाप्ति पर,
पढ़ता प्रदोष में, गीत ये दशानन का।
रथ, गज, अश्व से युक्त, उसे अनुकूल,
स्थिर श्री - सम्पदा, शंभु सदा देते हैं।।
“इति श्रीरावणकृतं शिवताण्डवस्तोत्रं सम्पूर्णम्।”
*
(गत वर्ष शिव रात्रि पर आडिओ क्लिप के साथ पूर्व प्रकाशित।)
मूल संस्कृत पाठ :
रावणकृत शिवताण्डवस्तोत्रम् का भावानुवाद...
अपितु, काव्य की दृष्टि से भी अद्भुत है। इसकी लयात्मकता, छन्द- प्रवाह, ध्वनि-सौष्ठव,
अलंकार-छटा, रस-सृष्टि एवं चित्रात्मक संप्रेषणीयता सब कुछ अत्यन्त आकर्षक एवं
मनोहारी है। यह अप्रतिम रचना महामना रावण के विनयशीलता, पाण्डित्य एवं
काव्य-लाघव का उत्कृष्ट उदाहरण है।
अनन्य भक्ति की गंगा, प्रवहमान स्वर-ध्वनि की यमुना एवं उत्कृष्ट काव्य की
सरस्वती की इस त्रिवेणी में अवगाहन के पुण्यलाभ के कृतज्ञतास्वरूप इसके भावानुवाद
का अकिंचन प्रयास किया है। आप भी पुण्यलाभ लें।
भगवान शिव मेरा एवं समस्त लोक का कल्याण करें।
-अरुण मिश्र.
‘‘अथ शिवताण्डवस्तोत्रम्’’
जटा - वन - निःसृत, गंगजल के प्रवाह से-
पावन गले, विशाल लम्बी भुजंगमाल।
डम्-डम्-डम्, डम्-डम्-डम्, डमरू-स्वर पर प्रचंड,
करते जो तांडव, वे शिव जी, कल्याण करें।।
जटा के कटाह में, वेगमयी गंग के,
चंचल तरंग - लता से शोभित है मस्तक।
धग् - धग् - धग् प्रज्ज्वलित पावक ललाट पर;
बाल - चन्द्र - शेखर में प्रतिक्षण रति हो मेरी।।
गिरिजा के विलास हेतु धारित शिरोभूषण से,
भासित दिशायें देख, प्रमुदित है मन जिनका।
जिनकी सहज कृपादृष्टि, काटे विपत्ति कठिन,
ऐसे दिगम्बर में, मन मेरा रमा रहे।।
जटा के भुजंगो के फणों के मणियों की-
पिंगल प्रभा, दिग्वधुओं के मुख कुंकुम मले।
स्निग्ध, मत्त - गज - चर्म - उत्तरीय धारण से,
भूतनाथ शरण, मन अद्भुत विनोद लहे।।
इन्द्र आदि देवों के शीश के प्रसूनों की-
धूलि से विधूसर है, पाद-पीठिका जिनकी।
शेष नाग की माला से बाँधे जटा - जूट,
चन्द्रमौलि, चिरकालिक श्री का विस्तार करें।।
ललाटाग्नि ज्वाला के स्फुलिंग से जिसके-
दहे कामदेव, और इन्द्र नमन करते हैं।
चन्द्र की कलाओं से शोभित मस्तिष्क जटिल,
ऐसे उन्नत ललाट शिव को मैं भजता हूँ ।।
जिसकी प्रचंडता में पंचशर होम हुये।
गौरी के कुचाग्रों पर पत्र - भंग - रचना के-
एकमेव शिल्पी, हो त्रिलोचन में रति मेरी।।
रात्रि अमावस्या की, घिरे हों नवीन मेघ,
ऐसा तम, जिनके है कंठ में विराजमान।
चन्द्र और गंग की कलाओं को शीश धरे-
जगत्पिता शिव, मेरे श्री का विस्तार करें।।
खिले नील कमलों की, श्याम वर्ण हरिणों की,
श्यामलता से चिह्नित, जिनकी ग्रीवा ललाम।
स्मर,पुर,भव, मख, गज, तम औरअन्धक का,
उच्छेदन करते हुये शिव को, मैं भजता हूँ।।
मंगलमयी गौरी के कलामंजरी का जो-
चखते रस - माधुर्य, लोलुप मधुप बने।
स्मर,पुर,भव, मख, गज, तम और अन्धक के,
हैं जो विनाशक, उन शिव को मैं भजता हूँ।।
भ्रमित भुजंगों के तीव्र निःश्वासों से-
और भी धधकती है, भाल की कराल अग्नि।
धिमि-धिमि-धिमि मंगल मृदंगों की तुंग ध्वनि-
पर, प्रचंड ताण्डवरत्, शिव जी की जय होवे।।
पत्तों की शैय्या और सुन्दर बिछौनों में;
सर्प - मणिमाल, और पत्थर में, रत्नों में।
तृण हो या कमलनयन तरुणी; राजा - प्रजा;
सब में सम भाव, सदा ऐसे शिव को भजूँ।।
गंगा तट के निकुंज - कोटर में रहते हुये,
दुर्मति से मुक्त और शिर पर अंजलि बॉधे।
विह्वल नेत्रों में भर छवि ललाम - भाल की,
जपता शिवमंत्र, कब होऊँगा सुखी मैं।।
उत्तमोत्तम इस स्तुति को जो नर नित्य,
पढ़ता, कहता अथवा करता है स्मरण।
पाता शिव - भक्ति; नहीं पाता गति अन्यथा;
प्राणी हो मोहमुक्त, शंकर के चिन्तन से।।
शिव का कर पूजन, जो पूजा की समाप्ति पर,
पढ़ता प्रदोष में, गीत ये दशानन का।
रथ, गज, अश्व से युक्त, उसे अनुकूल,
स्थिर श्री - सम्पदा, शंभु सदा देते हैं।।
“इति श्रीरावणकृतं शिवताण्डवस्तोत्रं सम्पूर्णम्।”
*
(गत वर्ष शिव रात्रि पर आडिओ क्लिप के साथ पूर्व प्रकाशित।)
मूल संस्कृत पाठ :
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