रविवार, 19 फ़रवरी 2012

कोई ग़ैर तो नहीं है..............


-अरुण मिश्र.

 इक अजीब कश्मकश है, कुछ  बोलूँ या न बोलूँ।
 कोई  ग़ैर  तो नहीं है,  कि मैं  उसके  राज़ खोलूँ॥


 माना  कि,  उसने   मुझसे  ना बोलने की  ठानी।
 ये तो  और भी नादानी जो न मैं भी उससे बोलूँ॥


 उसका सवाल,  उस सा  कोई दूसरा भी  है क्या?
 किसी  दूसरे  को  देखूँ ,  तब तो   ज़ुबान  खोलूँ॥


 गुस्से  में   ग़र्चे  उसने,  रुख  से  नक़ाब  पलटा।
 अब  है  जो  बही  गंगा  तो  क्यूँ  न  हाथ धो लूँ॥


 हर  बार  'अरुन'  उसके  सम्मुख  यही  दशा है।
 क्या धड़कनें  गिनूँ मैं,  क्या  नब्ज़   को टटोलूँ॥
                                    *

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