-अरुण मिश्र.
इक अजीब कश्मकश है, कुछ बोलूँ या न बोलूँ।
कोई ग़ैर तो नहीं है, कि मैं उसके राज़ खोलूँ॥
माना कि, उसने मुझसे ना बोलने की ठानी।
ये तो और भी नादानी जो न मैं भी उससे बोलूँ॥
उसका सवाल, उस सा कोई दूसरा भी है क्या?
किसी दूसरे को देखूँ , तब तो ज़ुबान खोलूँ॥
गुस्से में ग़र्चे उसने, रुख से नक़ाब पलटा।
अब है जो बही गंगा तो क्यूँ न हाथ धो लूँ॥
हर बार 'अरुन' उसके सम्मुख यही दशा है।
क्या धड़कनें गिनूँ मैं, क्या नब्ज़ को टटोलूँ॥
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