-अरुण मिश्र.
ऐशे-बहिश्त के लिये , लुत्फ़े- ज़माना तर्क।
या रब! ज़रूर कीजियो , वाइज़ का बेड़ा ग़र्क॥
उनकी तो उम्र ढल गई, अब रब से लौ लगी।
हम तो अभी जवान हैं , हमको पड़े है फ़र्क॥
रस हो, न रंग हो, न राग, मौज , न मस्ती।
हंगामा हुस्नो-इश्क़ का, न हो तो ज़मीं नर्क॥
ऋषियों की हैं सन्तान , न साक़ी निगाह फेर।
जीते थे सौ बरस कि , जो पीते थे सोम-अर्क़॥
पर्दा बहुत 'अरुन' था, पै' जो अपनी पे आये।
आख़िर को कोहे-तूर पे,चमकी ही आ के बर्क॥
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