रविवार, 22 अप्रैल 2012

यारब! ज़रूर कीजियो वाइज़ का बेड़ा ग़र्क.........

ग़ज़ल 

-अरुण मिश्र. 


ऐशे-बहिश्त   के   लिये , लुत्फ़े- ज़माना   तर्क। 
या रब!  ज़रूर कीजियो , वाइज़  का  बेड़ा  ग़र्क॥ 


उनकी  तो  उम्र ढल गई,  अब  रब से  लौ लगी। 
हम तो  अभी जवान हैं , हमको   पड़े  है   फ़र्क॥ 


रस  हो,  न रंग हो,  न  राग,  मौज ,  न  मस्ती। 
हंगामा हुस्नो-इश्क़  का, न  हो  तो  ज़मीं  नर्क॥ 


ऋषियों की  हैं  सन्तान , न  साक़ी  निगाह फेर। 
जीते थे  सौ बरस कि ,  जो  पीते थे  सोम-अर्क़॥ 


पर्दा  बहुत  'अरुन'  था, पै' जो  अपनी  पे  आये। 
आख़िर   को  कोहे-तूर पे,चमकी ही आ के बर्क॥
                                  *

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