जगद्गुरु शङ्कराचार्य की रचनाएँ न केवल भक्ति के
पावन गङ्गा में डुबकी लगवाती हैं अपितु , काव्य के
निर्मल निर्झरणी में काव्य-रसिकों को आनंदमय -स्नान
के लाभ का अवसर भी प्रदान करती हैं ।
मई, २००२ में श्रीमत् शङ्कराचार्य विरचित इस
यमुनाष्टक का मेरे द्वारा किया गया भावानुवाद
कागजों में कहीं खो गया था जो अचानक कल मिल गया ।
इसे सभी काव्य-रसिकों एवं 'शङ्कर' तथा यमुना-भक्तों
हेतु प्रस्तुत करने के लोभ का संवरण नहीं कर पा रहा हूँ ।
-अरुण मिश्र
श्रीमच्छङ्कराचार्य विरचित
श्री यमुनाष्टकम् का भावानुवाद
-अरुण मिश्र
मुरारि-तन-सुकालिमा ले नीर में, विहर रही।
समक्ष स्वर्ग, तुल्य तृण; त्रिलोक-शोक हर रही।
कुंज-पुंज कूल के मनोज्ञ; मद-कलुष विदा।
कलिंदनंदिनी, हमारे मन का मल धुले सदा।।
मल सकल विनाशिनी; सुनीर से सुपूरिता।
नंदसुत-सुअंग संग पा के, राग-रंजिता।
प्रघोर-पाप-चोरिणी; सदा प्रवीण; मुक्तिदा।
कलिंदनंदिनी, हमारे मन का मल धुले सदा।।
तरंग के परस से पाप, प्राणियों के हर उठें।
सुभक्ति हेतु तट, सुभक्त चातकों से भर उठें।
भक्त-रूप कूल-हंस-सेविता; सुकामदा।
कलिंदनंदिनी, हमारे मन का मल धुले सदा।।
विहार-रास-श्रम हरे, समीर धीर तीर का।
गिरा कहाँ बता सके, सुचारुता सुनीर का।
नद-नदी-धरा पवित्र, पा प्रवाह शुचिप्रदा।
कलिंदनंदिनी, हमारे मन का मल धुले सदा।।
सुश्यामला; तरंग संग बालुका से उर भरे।
सिंगार, रश्मि-मंजरी शरद के चंद्र की करे।
अर्चना के हेतु चारु-नीरदा; सुतोषदा।
कलिंदनंदिनी, हमारे मन का मल धुले सदा।।
रम्य-राधिका-सुअंग-अंगराग पा खिले।
अंग-संग कान्ह का न अन्य को, इसे मिले।
निज प्रवाह सप्तसिंधु भेदती, शुभप्रदा।
कलिंदनंदिनी, हमारे मन का मल धुले सदा।।
कृष्ण-रंग रंगी, ले गोपियों को भाग्यशालिनी।
राधिका-सुकेश-माल से हुई है मालिनी।
नारदादि कृष्ण-भृत्य, स्नान करें सर्वदा।
कलिंदनंदिनी, हमारे मन का मल धुले सदा।।
मंजु-कुंज खेलते, सदैव नंद के लला।
मल्लिका-कदंब-रेणु से है तट समुज्जवला।
स्नान नर करें, तरें वो भव-उदधि; स्वधामदा।
कलिंदनंदिनी, हमारे मन का मल धुले सदा।।
*
(इति श्रीमच्छङ्कराचार्य विरचित श्री यमुनाष्टकम् का भावानुवाद सम्पूर्ण हुआ।)
मूल संस्कृत पाठ :
श्रीयमुनाष्टकम्
पावन गङ्गा में डुबकी लगवाती हैं अपितु , काव्य के
निर्मल निर्झरणी में काव्य-रसिकों को आनंदमय -स्नान
के लाभ का अवसर भी प्रदान करती हैं ।
मई, २००२ में श्रीमत् शङ्कराचार्य विरचित इस
यमुनाष्टक का मेरे द्वारा किया गया भावानुवाद
कागजों में कहीं खो गया था जो अचानक कल मिल गया ।
इसे सभी काव्य-रसिकों एवं 'शङ्कर' तथा यमुना-भक्तों
हेतु प्रस्तुत करने के लोभ का संवरण नहीं कर पा रहा हूँ ।
-अरुण मिश्र
जय यमुना मैय्या की ! |
श्रीमच्छङ्कराचार्य विरचित
श्री यमुनाष्टकम् का भावानुवाद
-अरुण मिश्र
मुरारि-तन-सुकालिमा ले नीर में, विहर रही।
समक्ष स्वर्ग, तुल्य तृण; त्रिलोक-शोक हर रही।
कुंज-पुंज कूल के मनोज्ञ; मद-कलुष विदा।
कलिंदनंदिनी, हमारे मन का मल धुले सदा।।
मल सकल विनाशिनी; सुनीर से सुपूरिता।
नंदसुत-सुअंग संग पा के, राग-रंजिता।
प्रघोर-पाप-चोरिणी; सदा प्रवीण; मुक्तिदा।
कलिंदनंदिनी, हमारे मन का मल धुले सदा।।
तरंग के परस से पाप, प्राणियों के हर उठें।
सुभक्ति हेतु तट, सुभक्त चातकों से भर उठें।
भक्त-रूप कूल-हंस-सेविता; सुकामदा।
कलिंदनंदिनी, हमारे मन का मल धुले सदा।।
विहार-रास-श्रम हरे, समीर धीर तीर का।
गिरा कहाँ बता सके, सुचारुता सुनीर का।
नद-नदी-धरा पवित्र, पा प्रवाह शुचिप्रदा।
कलिंदनंदिनी, हमारे मन का मल धुले सदा।।
सुश्यामला; तरंग संग बालुका से उर भरे।
सिंगार, रश्मि-मंजरी शरद के चंद्र की करे।
अर्चना के हेतु चारु-नीरदा; सुतोषदा।
कलिंदनंदिनी, हमारे मन का मल धुले सदा।।
रम्य-राधिका-सुअंग-अंगराग पा खिले।
अंग-संग कान्ह का न अन्य को, इसे मिले।
निज प्रवाह सप्तसिंधु भेदती, शुभप्रदा।
कलिंदनंदिनी, हमारे मन का मल धुले सदा।।
कृष्ण-रंग रंगी, ले गोपियों को भाग्यशालिनी।
राधिका-सुकेश-माल से हुई है मालिनी।
नारदादि कृष्ण-भृत्य, स्नान करें सर्वदा।
कलिंदनंदिनी, हमारे मन का मल धुले सदा।।
मंजु-कुंज खेलते, सदैव नंद के लला।
मल्लिका-कदंब-रेणु से है तट समुज्जवला।
स्नान नर करें, तरें वो भव-उदधि; स्वधामदा।
कलिंदनंदिनी, हमारे मन का मल धुले सदा।।
*
(इति श्रीमच्छङ्कराचार्य विरचित श्री यमुनाष्टकम् का भावानुवाद सम्पूर्ण हुआ।)
मूल संस्कृत पाठ :
श्रीयमुनाष्टकम्
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