गुरुवार, 24 नवंबर 2016

ख़्वाबों की रुड़की



 ख़्वाबों की रुड़की
- अरुण मिश्र

UNIVVERSITY OF ROORKEE (I.I.T. ROORKEE

                                       


जवानी के ज़रखे़ज़ ख़्वाबों की, रुड़की।
सवालों की रुड़की, जवाबों की रुड़की।।
रगों  में  हमारे,   बहे   खून   बन  कर,
उसूलों की रुड़की, किताबों की रुड़की।।

ये रुड़की का गुरुकुल, इसी सरज़मीं पर,
मुक़म्मल   हुई,    तर्बियत    थी  हमारी।
बसी  इसकी  खु़शबू  है, सांसों  में  मेरे,
है आँखों में,  इसकी फ़िज़ा प्यारी-प्यारी।।

उफ़क-ता-उफ़क  है,  तसव्वुर पे  छाई,
उजालों की, औ’, आफ़ताबों की, रुड़की।।

ये बिल्डिंग, जिसे  मेन-बिल्डिंग हैं कहते,
इमारत  नहीं   सिर्फ,  पुरखों की   थाती।
बड़े  हम  हुये    लान  में  खेल   जिसके,
जिसे  याद  कर,  चौड़ी   होती है छाती।।

जे़हन  में  हमारे,  महकती  है   हरदम,
वो  बारिश में भीगे  गुलाबों की रुड़की।।

वो बिलियर्ड्स,टी.टी.,वो कैरम,वो म्यूज़िक,
वो गपशप,  वो  क्लब जाके  पढ़ना रिसाले।
हमें  भूलना मत,  ऐ!  ’गंगा’, ऐ!  ‘गोविन्द’;
ये   जज़्बात,     करता    हूँ    तेरे   हवाले।।

दिलों   में    हमारे,     हमेशा     बजाती-
है   संगीत,   मीठे  रबाबों  की   रुड़की।।

ये गुलशन हमारा, हम हैं  इसकी  बुलबुल,
जहाँ   में     जहाँ   भी    रहें,     चहचहायें।
हसीं  अंजुमन,   ऐ!   मुकद्दस चमन!  हम-
तेरी   शानो-अज़मत  के   ही  गीत  गायें।।


दुआयें   हमारी,   सलामत   रहे,   इल्मो-
फ़न  में   नये  इन्क़लाबों   की   रुड़की।।

हो   यूरोप,   अमरीका,   जापान,   कोई,
हो  दुनिया  में  हर  ओर  इज़्ज़त  हमारी।
नई    पौध,   आती  रहे   साल-दर-साल,
न  सूखे  कभी,   टेक्नोलॉजी  की  क्यारी।।

गरजतें   रहें   शेर,    रुड़की  के  यूँ  ही,
बनी  ये  रहे,    कामयाबों  की   रुड़की।।
                            *              
(टिप्पणी : मैं रुड़की विश्वविद्यालय का वर्ष 1975 का स्नातक हूॅ। वर्ष 2000 में रजत जयंती सम्मान हेतु आमंत्रण के अवसर पर, मैंने अपने गुरुकुल को श्रद्धासुमन स्वरूप यह नज़्म अर्पित की थी। -अरुण मिश्र.)
ARUN MISHRA
 B.E.(CIVIL)1975

Khvaabon Kee Rudakee (ROORKEE)


Javaanee ke zarkhez khvaabon kee, Rudakee.
Savaalon kee rudakee, javaabon kee Rudakee..
Ragon  men  hamaare,  bahe  khoon  ban kar,
Usoolon kee rudakee, kitaabon kee Rudakee.

Ye Rudakee kaa gurukul, isi sarazameen par,
Muqammal  huii,   tarbiyat  thee  hamaaree.
Basee  iskee  khushboo  hai, saanson men  mere,
Hai aankhon men,  iskee phizaa pyaaree-pyaaree.

Uphak-taa-uphak  hai, tasavvur pe chhaaii,
Ujaalon kee, au’, aaphataabon kee, Rudakee.

Ye building, jise main-builḍing hain kahate,
Imaarat  naheen  sirf,  purkhon kee  thaatee.
Bade  ham  huye  lawn  men  khel  jiske,
Jise  yaad  kar,  chaudee  hotee hai chhaatee.

Zehan  men  hamaare,  mahakatee hai  haradam,
Vo  baarish men bheege gulaabon kee Rudakee.

Vo billiards, T.T.  , vo   carom,  vo   music,
Vo gap-shap,  vo  club jaake  paḍhanaa risaale.
Hamen  bhoolnaa mat,  ai!  ‘gngaa’,  ai!  ‘govind’;
Ye   jazbaat,    kartaa  hoon   tere   havaale..

Dilon  men   hamaare,   hameshaa   bajaatee -
Hai  sngeet,  meeṭhe  rabaabon  kee  Rudakee.

Ye gulshan hamaraa,  ham hain  iskee  bulbul,
Jahaan   men   jahaan   bhee   rahen,   chahachahaayen.
Haseen  anjuman,  ai! Mukaddas chaman! Ham-
teree  shaano-azamat  ke  hee  geet  gaayen.

Duaayen  hamaree,  salaamat  rahe,  ilmo-
phan  men  naye  inqalaabon  kee  Rudakee.

Ho Europe,Amareekaa(America), Jaapaan(Japan), koii,
Ho  duniyaa  men  har  or  izzat  hamaaree.
Nayee    paudh,  aatee  rahe  saal-dar-saal,
Na  sookhe  kabhee,   technology  kee  kyaaree.

Garajaten  rahen  sher,  Rudakee  ke  yoon  hee,
Banee  ye  rahe,   kaamayaabon  kee  Rudakee.


                                  *

UNIVVERSITY OF ROORKEE (I.I.T. ROORKEE)

सोमवार, 7 नवंबर 2016

छठ पर्व की मंगलकामनाएं !


अस्तंगत सूर्य को एक अर्घ्य मेरा भी

- अरुण मिश्र 






( पूर्वप्रकाशित )

बुधवार, 14 सितंबर 2016

वॉव ! ग्रेट ! फोर्टीन्थ सेप्टेम्बर !


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वॉव !  ग्रेट ! फोर्टीन्थ सेप्टेम्बर !

-अरुण मिश्र 

कोल्कता की हिंदी मइय्या।  
मुम्बई  वाले   हिंदी भइय्या। 
चेन्नै   वाली     हिंदी  अम्मा। 
नाचे   हिंदी   छम्मा-छम्मा।।

हिंदी दिवस  मनायें  छक कर। 
वॉव !  ग्रेट ! फोर्टीन्थ सेप्टेम्बर।। 

दुनिया भर की हुई दुलारी। 
शोर-शराबा   है  सरकारी।
हिंदी  एक रोज़  की  रानी। 
दुहराती हर साल कहानी।।

हिंदी दिवस  मनायें  छक कर। 
वॉव !  ग्रेट ! फोर्टीन्थ सेप्टेम्बर।। 

पैसे वाले,  नेता,  अफ़सर।
झाड़ रहे हिंदी पर लेक्चर।
हिंदी के भविष्य को लेकर,
चिंतित सारे व्हाइट कॉलर।।

हिंदी दिवस  मनायें  छक कर। 
वॉव !  ग्रेट ! फोर्टीन्थ सेप्टेम्बर।। 

बाबा   लोग    गए     स्कूल। 
हॉर्स राइडिंग, स्विमिंग  पूल।
ललुआ,  बुधुआ  शाला जाते। 
डर्टी,  डैम  फूल   कहलाते।।

हिंदी दिवस  मनायें  छक कर। 
वॉव !  ग्रेट ! फोर्टीन्थ सेप्टेम्बर।। 

गाने    बजा-बजा    बाज़ारू। 
ख़ुश  हैं  सारे   ब्रो    बीमारू।
हमने  भी   की   फ़र्ज़-अदाई। 
कुछ मन की पीड़ा छलकायी।।

हिंदी दिवस  मनायें  छक कर। 
वॉव !  ग्रेट ! फोर्टीन्थ सेप्टेम्बर।। 
                     *
 



   

सोमवार, 5 सितंबर 2016

डॉसर्वपल्ली राधाकृष्णन को शतशः नमन ..


गुरु - गरिमा के सर्वोच्च शिखर


-अरुण मिश्र

तुम अध्यापक , तुम अध्येता,

तुम राजनयिकशास्त्रज्ञ महा ।

शिक्षा - संस्कृति के अग्रदूत ,

तुम को पा , दर्शनधर्म लहा । ।


भारत माँ के गौरव ललाम ,
गुरु - गरिमा के सर्वोच्च शिखर। 

यह श्रद्धांजलि स्वीकार करो ,
 
गाँधी - युग के ,अंतिम ऋषिवर । ।
                        *
(०५ सितम्बर, २०१० को पूर्वप्रकाशित )

मंगलवार, 26 जुलाई 2016

कारगिल के वीर...

श्रद्धांजलि


   कारगिल के वीर

    -अरुण मिश्र


  तुमने बज़्मे-जंग में छलकाये  अपने खूँ के जाम।
  कारगिल के वीर तुमको, देश  का सौ-सौ सलाम।।


                    धूर्त   दुश्मन   जब  घुसा,  घर  में  हमारे   चोर सा।
                    बंकरों    में   जब     हमारे    ही    जमाया   मोरचा।
                    उसपे थीं लंदन की सिगरेट्स, तुम पे जूते तक नहीं।
                    लात फिर भी खा तुम्हारी,  पैर  रख  सर  पर भगा।।


  तुम हिमानी चोटियों पर टांक आये  अपना नाम।
  कारगिल के वीर तुमको, देश  का सौ-सौ सलाम।।


                     वीरता    के    आवरण   में,  शूरता   का   आचरण।
                     शत्रुओं  के  शीश  पर,  शोभित  हुये  विजयी चरण।
                     देख कर  पुरुषार्थ,  रण  में   मृत्यु  तक मोहित हुई।
                     डालकर जयमाल,  जय का,  कर  लिया तेरा वरण।।


  उन शहीदों पर वतन के,  है निछावर  ये कलाम।
  कारगिल के वीर तुमको, देश का सौ-सौ सलाम।।


                      एक-एक, चोटी को  तुमने,   खून  से  सींचा जवान।
                      जान की बाज़ी लगा दी, औ'  बचा  ली माँ की आन।
                      है     तेरी     कुर्बानियों    के    रंग    से    रंगी   हुई-
                      आज की  ये जश्ने-आज़ादी,  तिरंगे  की   ये  शान।।


  सज गये गौरव-मुकुट से, भाल-भारत के ललाम।
  कारगिल के वीर तुमको, देश  का सौ-सौ सलाम।।


                                        *
(संग्रह 'न जाने किन ज़मीनों से' से साभार )
२७ जुलाई , २०१५ को पूर्वप्रकाशित 

रविवार, 29 मई 2016

श्रीमच्छङ्कराचार्य विरचित आत्मषट्कं का भावानुवाद

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श्रीमच्छङ्कराचार्य विरचित 
आत्मषट्कं (निर्वाण षट्कं) भावानुवाद


-अरुण मिश्र 

न    हूँ    मैं  अहंकार,   मन, चित्त, बुद्धि ;  
न   हूँ   कर्ण-जिह्वा,   न    हूँ    नेत्र-नासा।
न    हूँ   व्योम-भूमि,   न    हूँ   तेज-वायु ;
चिदानन्द का रूप, शिव  हूँ,  मैं शिव  हूँ ।।

न    मैं   प्राणसंज्ञा,    न    हूँ    पंच-वायु ;
न    हूँ    सप्तधातु,   न    हूँ     पंचकोश।
न मुख-कर-चरण   हूँ ,  न  गुह्यांग कोई ;
चिदानन्द का रूप, शिव  हूँ ,  मैं शिव  हूँ ।।

मुझे   राग   ना   द्वेष,   ना  लोभ-मोह ;
न मद कोई मुझ में, न मात्सर्य का भाव।
नहीं   धर्म,   ना   अर्थ,  ना  काम-मोक्ष ;
चिदानन्द का रूप, शिव  हूँ ,  मैं शिव  हूँ ।।

नहीं  हूँ  मैं सुख-दुख, नहीं पुण्य या पाप ;
नहीं   वेद,   ना   यज्ञ,    ना    मन्त्र-तीर्थ।
नहीं  हूँ  मैं  भोजन,   न  हूँ   भोज्य-भोक्ता ;
चिदानन्द का रूप, शिव  हूँ ,  मैं शिव  हूँ ।।

नहीं  मृत्युभय  मुझ को,  ना  जातिभेद ;
न   माता-पिता   मेरे,   ना   जन्म  कोई।
न बन्धु, न मित्र, न गुरु कोई, ना शिष्य;
चिदानन्द का रूप, शिव  हूँ,  मैं शिव  हूँ ।।

निराकार    हूँ     रूप   मैं,    निर्विकल्प ;
सकल -  सृष्टि - सर्वत्र  -  सर्वांग- व्यापी।
सदा मुझ में सम भाव, बन्धन ना मुक्ति ;
चिदानन्द का रूप, शिव  हूँ ,  मैं शिव  हूँ ।।
                                 *


मूल संस्कृत पाठ   :
 आत्मषट्कम् 
 
मनोबुद्ध्यहङ्कारचित्तानि नाहं
  श्रोत्रजिह्वे   घ्राणनेत्रे 
  व्योमभूमिः  तेजो  वायुः
चिदानन्दरूपः शिवोऽहं शिवोऽहम्  १॥
 
  प्राणसञ्ज्ञो  वै पञ्चवायुः
 वा सप्तधातुर्न वा पञ्चकोशः 
 वाक् पाणिपादौ  चोपस्थपायू
चिदानन्दरूपः शिवोऽहं शिवोऽहम्  २॥
 
 मे द्वेषरागौ  मे लोभमोहौ
मदो नैव मे नैव मात्सर्यभावः 
 धर्मो  चार्थो  कामो  मोक्षः
चिदानन्दरूपः शिवोऽहं शिवोऽहम्  ३॥
 
 पुण्यं  पापं  सौख्यं  दुःखं
 मन्त्रो  तीर्थं  वेदा  यज्ञाः 
अहं भोजनं नैव भोज्यं  भोक्ता
चिदानन्दरूपः शिवोऽहं शिवोऽहम्  ४॥
 
 मे मृत्युशङ्का  मे जातिभेदः
पिता नैव मे नैव माता  जन्म 
 बन्धुर्न मित्रं गुरुर्नैव शिष्यः
चिदानन्दरूपः शिवोऽहं शिवोऽहम्  ५॥
 
अहं निर्विकल्पो निराकाररूपो
विभुव्या।र्प्य सर्वत्र सर्वेन्द्रियाणाम् 
सदा मे समत्वं  मुक्तिर्न बन्धः
चिदानन्दरूपः शिवोऽहं शिवोऽहम्  ६॥
         
 इति श्रीमच्छङ्कराचार्यविरचितं आत्मषट्कं सम्पूर्णम् 



शुक्रवार, 22 अप्रैल 2016

आओ धरती को बचाएँ.....

आओ धरती को बचाएँ...
Green planet with trees in hands isolated on white background - stock photo
                                                                        
                                                                          -अरुण मिश्र 


है आसरा हनुमान जी---



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 है आसरा हनुमान जी---
 -अरुण मिश्र
जैसे दुख  श्री जानकी जी का  हरा  हनुमान जी।
दुख   हमारे  भी  हरो, है, आसरा  हनुमान जी।।

देह   कुंदन, भाल   चंदन,  केसरी  नंदन  प्रभो।
ध्यान इस छवि का सदा हमने धरा हनुमान जी।।

लॉघ  सागर,  ले  उड़े,  संजीवनी  परबत सहज।
क्रोध,  कौतुक में  दिया लंका जरा  हनुमान जी।।

मुद्रिका दी,  वन  उजारा और  अक्षय को हना।
शक्ति का  आभास पा, रावन डरा  हनुमान जी।।

राम के तुम काम आये, काम क्या तुमको कठिन। 
कौन संकट,  ना  तेरे   टारे टरा  हनुमान जी।।

चरणकमलों में तिरे निसिदिन 'अरुण' का मन रमे।
हो  हृदय  में  भक्ति का सागर भरा   हनुमान जी।। 

(पूर्वप्रकाशित)