https://youtu.be/on3gyDQRA-Y
चहार-बैत का नाम आप ने ज़रूर सुना होगा ।
चहार-बैत का नाम आप ने ज़रूर सुना होगा ।
चहार के मानी होते हैं चार और बैत शेर को कहते हैं ।
अस्ल में चहार-बैत या चार-बैत गायन की एक पारंपरिक शैली है ।
इस गायन शैली को कभी कला के रूप में भोपाल, टोंक, रामपुर,
अमरोहा और मुरादाबाद में उरूज हासिल हुआ था ।
चहार-बैत अफ़ग़ानिस्तान की लोक-कला है । हालाँकि हिन्दुस्तान में इसकी जड़ें
उस ज़माने में भी तलाश की गई हैं जब अफ़ग़ानियों की ये कला यहाँ नहीं पहुँची थी ।
लोक-कला के जानने वाले इस का रिश्ता ख़्याल और ध्रुपद गायन से जोड़ते हैं ।
दरअस्ल चहार-बैत की एक क़िस्म ‘ डेढ़-फड़क्का’ है जिसे ख़्याल भी कहा जाता है ।
हिन्दुस्तानी लोक-कला के इतिहास में स्पष्ट रूप से इस कला को विस्तार अफ़ग़ानियों
ने ही दिया । ये वो अफ़ग़ानी हैं जो हिंदी मूल के थे। इसलिए इस कला को
हिंदी-उल-अस्ल यानी हिन्दुस्तानी कहा जाता है । अफ़ग़ानी पठान कई अवसर
और मौक़ों के अलावा इस को जंग के दौरान विश्राम के वक़्त अपनी भाषा पश्तो
में गाते थे ।
लेखक : फ़ैयाज़ अहमद वजीह
https://khayalbasti.wordpress.com/2017/10/14/char-bait-chahar-bait/
लेखक : फ़ैयाज़ अहमद वजीह
https://khayalbasti.wordpress.com/2017/10/14/char-bait-chahar-bait/
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