बुधवार, 26 फ़रवरी 2020

ये बिंदिया कौन देखेगा, ये झूमर कौन देखेगा.... (चहार-बैत)

https://youtu.be/on3gyDQRA-Y

चहार-बैत का नाम आप ने ज़रूर सुना होगा । 
चहार के मानी होते हैं चार और बैत शेर को कहते हैं । 

अस्ल में चहार-बैत या चार-बैत गायन की एक पारंपरिक शैली है । 
इस गायन  शैली को कभी कला के रूप में भोपाल, टोंक, रामपुर, 
अमरोहा और मुरादाबाद में उरूज हासिल हुआ था ।

चहार-बैत अफ़ग़ानिस्तान की लोक-कला है । हालाँकि हिन्दुस्तान में इसकी जड़ें 
उस ज़माने में भी तलाश की गई हैं जब अफ़ग़ानियों की ये कला यहाँ नहीं पहुँची थी । 
लोक-कला के जानने वाले इस का रिश्ता ख़्याल और ध्रुपद गायन से जोड़ते हैं । 
दरअस्ल चहार-बैत की एक क़िस्म ‘ डेढ़-फड़क्का’ है जिसे ख़्याल भी कहा जाता है ।
हिन्दुस्तानी लोक-कला के इतिहास में स्पष्ट रूप से इस कला को विस्तार अफ़ग़ानियों 
ने ही दिया । ये वो अफ़ग़ानी हैं जो हिंदी मूल के थे। इसलिए इस कला को 
हिंदी-उल-अस्ल यानी हिन्दुस्तानी कहा जाता है । अफ़ग़ानी पठान कई अवसर 
और मौक़ों के अलावा इस को जंग के दौरान विश्राम के वक़्त अपनी भाषा पश्तो 
में गाते थे ।
लेखक :  फ़ैयाज़ अहमद वजीह 
https://khayalbasti.wordpress.com/2017/10/14/char-bait-chahar-bait/

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