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अगर अन्तर्दृष्टि सुन्दर...
-अरुण मिश्र
अगर अंतर्दृष्टि सुन्दर।
सृष्टि सुन्दर, सृष्टि सुन्दर।।
हरिण का लावण्य अपना,
ऊँट का सौंदर्य अपना।
वृक्ष की अपनी हरित छवि,
ठूँठ का सौंदर्य अपना।।
इस जगत में वस्तुएँ -
होती नहीं सुंदर-असुंदर।।
सृजन की घड़ियाँ मधुर हैं -
कठिन पीड़ाएँ सुलातीं।
नाश-लीलाएँ सदा ही -
नव -सृजन-आशा जगातीं।।
सुःख-दुःख का घोल समरस -
बह रहा जीवन सुनिर्झर।।
ग्राह्य क्या है, त्याज्य क्या है?
यह विवेकाधीन प्रतिक्षण।
सर्वथा जो हो असुंदर,
है न ऐसा एक भी कण।।
ब्रह्म के आलोक से है -
दीप्त, प्रति परमाणु भास्वर।।
शोक क्या, आनंद क्या है ?
क्या बुरा, क्या है भला ?
दृश्य-पट, क्षण-क्षण बदलते,
प्रकृति है, चिर - चंचला।।
आँकती जो दृष्टि उस पर -
प्रिय-अप्रिय का भेद निर्भर।।
(मेरे कविता संग्रह 'अंजलि भर भाव के प्रसून' से साभार)
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