ग़ज़लें :
ये न थी हमारी क़िस्मत - मिर्ज़ा ग़ालिब
अज़ब अपना हाल होता - दाग़ देहलवी
गायन : टीना सानी
प्रस्तोता : अनवर मसूद
ये न थी हमारी क़िस्मत के विसाल-ए-यार होता - मिर्ज़ा ग़ालिब
ये न थी हमारी क़िस्मत के विसाल-ए-यार होता
अगर और जीते रहते, यही इंतज़ार होता
तेरे वादे पर जिए हम, तो ये जान झूठ जाना
के ख़ुशी से मर न जाते, अगर ऐतबार होता
तेरी नाज़ुकी से जाना के बँधा था अहद बोदा
कभी तू न तोड़ सकता, अगर उस्तुवार होता
कोई मेरे दिल से पूछे, तेरे तीर-ए-नीम-कश को
ये ख़लिश कहाँ से होती, जो जिगर के पार होता
ये कहाँ की दोस्ती है के बने हैं दोस्त नासेह
कोई चारासाज़ होता कोई ग़मग़ुसार होता
रगे-ए-संग से टपकता, वो लहू के फिर न थमता
जिसे ग़म समझ रहे हो, ये अगर शरार होता
ग़म अगरचे जां-गुसिल है, प कहाँ बचें के दिल है
ग़म-ए-इश्क़ ग़र न होता, ग़म-ए-रोज़गार होता
कहूँ किस से मैं कि क्या है, शब-ए-ग़म बुरी बला है
मुझे क्या बुरा था मरना अगर एक बार होता
हुए मर के हम जो रुस्वा, हुए क्यूँ न ग़र्क़-ए-दरिया
न कभी जनाज़ा उठता, न कहीं मज़ार होता
उसे कौन देख सकता के यगाना है वो यकता
जो दुई की बू भी होती, तो कहीं दो-चार होता
ये मसाईल-ए-तसव्वुफ़, ये तिरा बयान ग़ालिब
तुझे हम वली समझते, जो न बादा-ख़्वार होता
अज़ब अपना हाल होता - दाग़ देहलवी
अज़ब अपना हाल होता जो विसाल-ए-यार होता
कभी जान सदक़े होती, कभी दिल निसार होता
जो तुम्हारी तरह तुम से कोई झूठे वादे करता
तुम ही मुंसिफ़ी से कह दो, तुम्हें ए'तिबार होता ?
ये मज़ा था दिल-लगी का, के बराबर आग लगती
न तुझे क़रार होता न मुझे क़रार होता
न मज़ा है दुश्मनी में, न है लुत्फ़ दोस्ती में
कोई ग़ैर-ग़ैर होता कोई यार-यार होता
तेरे वादे पर सितमग़र, अभी और सब्र करते
अगर अपनी ज़िन्दगी का हमें ए'तिबार होता
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