जय मैथिली, धरनी-सुता, सिया, जनक-तनया, जानकी। जय भूमिजा, जनकात्मजा, प्राणप्रिया श्री राम की ।। माण्डवी-उर्मिला भगिनी, अग्रजा श्रुतिकीर्ति की। सुनयना-मिथिलेश कन्या, अंक रघुवर वाम की ।।
ढूँढते फिरोगे लाखों में फिर कौन सामने बैठेगा बंगाली भावुकता पहने दूरों दूरों से लाएगा केशों को गंधों के गहने ये देह अजंता शैली सी किसके गीतों में सँवरेगी किसकी रातें महकाएँगी जीने के मोड़ों की छुअनें फिर चाँद उछालेगा पानी किसकी समुंदरी आँखों में
दो दिन में ही बोझिल होगा मन का लोहा तन का सोना फैली बाहों सा दीखेगा सूनेपन में कोना कोना
अपने रुचि-रंगों का चुनाव किसके कपड़ों में टाँकोगे अखरेगा किसकी बातों में पूरी दिनचर्या ठप होना
दरकेगी सरोवरी छाती धूलिया जेठ वैशाखों में
ये गुँथे गुँथे बतियाते पल कल तक गूँगे हो जाएँगे होंठों से उड़ते भ्रमर गीत सूरज ढलते सो जाएँगे जितना उड़ती है आयु परी इकलापन बढ़ता जाता है सारा जीवन निर्धन करके ये पारस पल खो जाएँगे
गोरा मुख लिये खड़े रहना खिड़की की स्याह सलाखों में
नोट : मैंने इस गीत को १९७० के दशक में रेडियो पर भारत भूषण जी
के स्वर में सुना था। अद्भुत अनुभव था। उसकी छाप मन पर अमिट है।
आज भी कानों में वह भावपूर्ण स्वर गूँजता है।
वह ऑडियो खोज रहा हूँ पर कहीं मिल नहीं रहा है। किसी को मिले तो
'राम की जल समाधि' - महान गीतकार भारत भूषण के स्वर में --कविता की पृष्ठभूमि --
१. भगवान श्री राम के अवतार लेने का प्रयोजन पूर्ण होने पर, ब्रह्मा जी ने कहा
आप जैसे चाहें वैसे विष्णु-लोक में आएँ। केवल योगमाया सीतादेवी आपको यथार्थ
रूप को पहचानती हैं। ब्रह्मा जी की बात सुनकर वे सरयू नदी में प्रवेश कर,
अपने वैष्णव तेज रूप में समा गए थे। उस समय अप्सराओं ने नृत्य किया,
गंधर्वों ने गान किया, देवताओं ने पुष्पवर्षा की। श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण के
उत्तर काण्ड के ११० वें सर्ग में इसका वर्णन है।
२. भारत भूषण जी ने एक कवि सम्मलेन में कहा था कि वे सरयू-तट पर बैठे थे,
उन्हें रामायण का उपरोक्त प्रसंग याद आया। वे वहाँ दिव्य भावों में खो गये।
कैसे राम को सीता का स्मरण ने विचलित किया होगा। विशाल राज्य,सारा सुख
तुच्छ लगा होगा। सीता का बिछोह असहनीय हो गया होगा। कैसे जल में प्रवेश
किया होगा। पानी पहले घुटनों तक, फिर नाभि से होता हुआ छाती तक आया होगा।
राम कैसे सरयू में आगे बढे होंगे। माँ सीता और उनकी सखियों ने कैसे उनका स्वागत
किया होगा। इस तरह उनकी यह कविता बन गयी।
३. आप यह कालजयी रचना पढ़ें, सुनें और महसूस करें। शब्द और स्वर, एक दिव्य
अनुभूति दे जाते हैं। 'राम की जल समाधि' पश्चिम में ढलका सूर्य
उठा वंशज सरयू की रेती से
हारा-हारा रीता-रीता
निःशब्द धरा, निःशब्द व्योम
निःशब्द अधर, पर रोम-रोम
था टेर रहा सीता-सीता
किसलिए रहे अब ये शरीर
ये अनाथ मन किसलिए रहे
धरती को मैं किसलिए सहूँ
धरती मुझको किसलिए सहे
तू कहाँ खो गई वैदेही
वैदेही तू खो गई कहाँ
मुरझे राजीव नयन बोले
काँपी सरयू, सरयू काँपी
देवत्व हुआ लो पूर्णकाम
नीली माटी निष्काम हुई
इस स्नेहहीन देह के लिए
अब साँस-साँस संग्राम हुई
ये राजमुकुट ये सिंहासन
ये दिग्विजयी वैभव अपार
ये प्रिया-हीन जीवन मेरा
सामने नदी की अगम धार
माँग रे भिखारी-लोक माँग
कुछ और माँग अंतिम बेला
आदर्शों के जल-महल बना
फिर राम मिले न मिले तुझको
फिर ऐसी शाम ढले न ढले
ओ खंडित प्रणयबंध मेरे
किस ठौर कहाँ तुझको जोड़ूँ
कब तक पहनूँ ये मौन धैर्य
बोलूँ भी तो किससे बोलूँ
सिमटे अब ये लीला सिमटे
भीतर-भीतर गूँजा भर था
छप से पानी में पॉंव पड़ा
चरणों से लिपट गई सरयू
फिर लहरों पर वाटिका खिली
रतिमुख सखियाँ नतमुख सीता
सम्मोहित मेघबरन बरसे
पानी घुटनों-घुटनों आया
आया घुटनों-घुटनों पानी
फिर धुआँ-धुआँ फिर अँधियारा
लहरों-लहरों धारा-धारा
व्याकुलता फिर पारा-पारा
फिर एक हिरन -सी किरण देह
दौड़ती चली आगे-आगे
नयनों में जैसे बाण सधा
दो पाँव उड़े जल में आगे
पानी लो नाभि-नाभि आया
आया लो नाभि-नाभि पानी
जल में तम, तम में जल बहता
ठहरो बस, और नहीं, कहता
जल में कोई जीवित दहता
फिर एक तपस्विनी शांत-सौम्य
धक्-धक् लपटों -सी निर्विकार
सशरीर सत्य-सी सन्मुख थी
उन्माद नीर चीरने लगा
पानी छाती-छाती आया
आया छाती-छाती पानी
भीतर लहरें, बाहर लहरें
आगे जल था, पीछे जल था
केवल जल था, वक्ष स्थल था
वक्ष-स्थल तक केवल जल था
जल पर तिरता था नीलकमल
बिखरा -बिखरा-सा नीलकमल
कुछ और-और-सा नीलकमल
फिर फूटा जैसे ज्योति प्रहार
धरती से नभ तक जगर-मगर
दो टुकड़े धनुष पड़ा नीचे
जैसे सूरज के हस्ताक्षर
बाँहों के चन्दन घेरे से
दीपित जयमाल उठी ऊपर
सर्वस्व सौंपता शीश झुका
लो शून्य राम, लो राम लहर
फिर लहर-लहर लहरें-लहरें
सरयू-सरयू सरयू-सरयू
लहरें -लहरें लहरें-लहरें
केवल तम ही तम
तम ही तम
जल ही जल
जल ही जल केवल
हे राम-राम
हे राम-राम
हे राम-राम
हे राम-राम