बुधवार, 1 सितंबर 2010

जन्माष्टमी पर विशेष


क्या
ख़ूब साँवले! हो

- अरुण मिश्र


जब चाँदनी खिली हो, और चाँद सामने हो।
देखूँ तुम्हें , उसको , क्या ख़ूब साँवले! हो।।

भादों की बदलियाँ थीं, थी रैन भी अँधेरी।
आँगन में अचानक, तुम चाँद सा खिले हो।।

चितचोर हो, छलिया हो,फिर भी यकीं तुम्हीं पे।
ब्रज की दही से मीठे, तुम दूध के धुले हो।।

तुम राम हो,कान्हा हो,इस मिट्टी की ख़ुशबू हो।
हर साँस में रवां हो, अहसास में घुले हो।।

तुझ साँवरे सा उजला, देखा अरुनहमने।
गो-रस में छलकते हो, मक्खन में तुम सने हो।।


यह ग़ज़ल सुनने के लिए, दिए गए ऑडियो क्लिप का प्ले बटन क्लिक करें

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें