शुक्रवार, 1 अक्तूबर 2010

सोच का सदियों के , ना तोड़ा गया जो दायरा

ग़ज़ल 

- अरुण मिश्र 


मंदिरों   में    हों   अज़ानें ,  मस्जिदों  में   घंटियां। 
तब मैं मानूँगा  कि  सचमुच  एक हैं अल्ला मियां।।  

सोच  का  सदियों  के ,  ना  तोड़ा  गया  जो दायरा। 
तो   नहीं   घट   पायेंगी ,  बढ़ती    हुई   ये   दूरियां।। 

आज, जब  दुनिया सिमट कर,गॉव इक होने को है। 
तब  ये कैसा बचपना,  सबकी  अलग हों  बस्तियां??  

जो   न   हों    ऊँचा   उठातीं   आपके   क़िरदार  को।       
हो  नहीं  सकतीं   कभी   ज़ायज़ हैं , वो  पाबन्दियां।।    

तुम, बनाने वाले की  नज़रों से   ग़र देखो  ‘अरुन’। 
ना तो वे  ही म्लेच्छ हैं , ना ये  ही हैं काफ़िर मियां।।
                                                          *

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