रविवार, 11 अप्रैल 2021

ना ये वक़्त मेरा है, ना ये वक़्त तेरा है.../ ग़ज़ल (१९९८) / अरुण मिश्र

२२/०९ /१९९८ को लिखी यह ग़ज़ल आज एक पुरानी डायरी 
में मिली। एक तरह से खोई हुई। शेयर कर रहा हूँ। 
-अरुण मिश्र 

ना  ये वक़्त  मेरा है, ना ये वक़्त तेरा है।
उम्र  लूटने  वाला,  वक़्त  इक  लुटेरा है।

जो जहाँ में आया है, वो जहाँ से जायेगा।  
मोह क्यूँ घनेरा है, कुछ समय का डेरा है।। 

धूल-धूल  धरती  पर,  फूल-फूल रंगीनी। 
पात-पात हरियाली, किसने ये बिखेरा है।

क़ायनात में सारी, भर रहा शफ़क़ के रंग। 
रौशनी की  कूची से,  कौन सा  चितेरा है।

एक पल सँवरता है, दूजे पल बिगड़ता है। 
फ़ानी  हर नज़ारा, जो  वक़्त ने  उकेरा है।

नींद है, तो सपने हैं, सपने तो, छलावे हैं। 
छोड़ नींद ग़फ़लत की, जब जगे सबेरा है।

सिलसिले तिलिस्मों के आदमी है, दुन्या है। 
धूप   और   छाया   है,   रौशनी - अँधेरा  है।

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