शनिवार, 25 सितंबर 2021

रासे हरिमिह विहित-विलासं.../ अष्टपदी गीतगोविन्द / महाकवि जय देव / नृत्य : विदुषी श्रीमती अपर्णा महाबलेश्वर / गायन : विद्वान श्री के. हरिप्रसाद

 https://youtu.be/A1s4SY_bf6s 

अष्टपदी : रासे हरिमिह विहित-विलासं... नृत्य : विदुषी श्रीमती अपर्णा महाबलेश्वर गायन : विद्वान श्री के. हरिप्रसाद 

गुरु डॉ. एम. आर. कृष्णामूर्ति की शिष्या, सिद्धहस्त नृत्यांगना 
विदुषी श्रीमती अपर्णा महाबलेश्वर ने अपने मोहक नृत्यमुद्राओं
एवं मुखर भाव भावभंगिमाओं से अष्टपदी के पदों के शब्द-शब्द
को जीवंत कर दिया है। सर्वथा दर्शनीय प्रस्तुति।

अष्टपदी के नृत्य में प्रयुक्त पद 

सञ्चरदधर-सुधा-मधुर-ध्वनि-मुखरित-मोहन-वंशं

बलित-दृगञ्चल-चञ्चल-मौलि-कपोल-विलोल-वतंसम्र।
रासे हरिमिह विहित-विलासं
स्मरति मनो मम कृत-परिहासम् ॥1॥ध्रुवम्॥

अनुवाद- सखि, कैसी आश्चर्य की बात है कि इस शारदीय रासोत्सव में श्रीकृष्ण मुझे छोड़कर अन्य कामिनियों के साथ कौतुक आमोद में विलास कर रहे हैं। फिर भी मेरा मन उनका पुन: पुन: स्मरण कर रहा है। वे सञ्चरणशील अपने मुखामृत को अपने करकमल में स्थित वेणु में भरकर फुत्कार के साथ सुमधुर मुखर स्वरों में बजा रहे हैं, अपांग-भंगी के द्वारा अपने मणिमय शिरोभूषण को चञ्चलता प्रदान कर रहे हैं, उनके कानों के आभूषण कपोल देश में दोलायमान हो रहे हैं, उनके इस श्याम रूप का, उनके हास-परिहास का मुझे बारम्बार स्मरण हो रहा है ॥1॥
In my heart of hearts, I still remember the captivating 
form of Krishna, with sweetness spilling from his lips,  
enchanting melodies flowing from his flute, eyes 
wavering, headgear quivering, cheeks trembling.  
I remember Hari, his frolics in the rasa dance and 
his making a laughing stock of me.   

विपुल-पुलक-भुज-पल्लव-वलयित-वल्लव-युवति-सहंस्त्र।
कर-चरणोरसि-मणिगण-भूषण-किरण-विभिन्न-तमिस्त्रं-
रासे हरिमिह ... ... ॥4॥

अनुवाद- अतिशय रोमाञ्च से परिप्लुत होकर अपने सुकोमल भुज-पल्लव के द्वारा हजारों-हजारों गोप-युवतियों को समालिंगित करने वाले एवं कर, चरण और वक्षस्थल में ग्रथित मणिमय आभूषणों की किरणों से दिशाओं को आलोकित करने वाले श्रीकृष्ण का मुझे स्मरण हो रहा है।

I remember Hari who encircles with his hands, soft as 
leaf buds, a thousand young gopis and who dispels the 
darkness (of the night)  by the dazzle of ornaments, 
studded with diamonds and precious gems, adorning 
his hands, feet and chest.  I now remember.
Hari etc……..   
सम्पूर्ण अष्टपदी 
॥ गीतम् ५॥

संचरदधरसुधामधुरध्वनिमुखरितमोहनवंशम् ।
चलितदृगञ्चलचञ्चलमौलिकपोलविलोलवतंसम् ॥
रासे हरिमिह विहितविलासं
स्मरति मनो मम कृतपरिहासम् ॥१॥
चन्द्रकचारुमयूरशिखण्डकमण्डलवलयितकेशम् ।
प्रचुरपुरन्दरधनुरनुरञ्जितमेदुरमुदिरसुवेशम् ॥ २॥ रासे हरिमिह ...
गोपकदम्बनितम्बवतीमुखचुम्बनलम्भितलोभम्।
बन्धुजीवमधुराधरपल्लवमुल्लसितस्मितशोभम् ३॥ रासे हरिमिह ...
विपुलपुलकभुजपल्लववलयितवल्लवयुवतिसहस्रम् ।
मणिगणभूषणकिरणविभिन्नतमिस्रम् ४॥ रासे हरिमिह ...
जलदपटलचलदिन्दुविनन्दकचन्दनतिलकललाटम् ।
पीनघनस्तनमण्डलमर्दननिर्दयहृदयकपाटम् ॥ ५॥ रासे हरिमिह ...
मणिमयमकरमनोहरकुण्डलमण्डितगण्डमुदारम् ।
पीतवसनमनुगतमुनिमनुजसुरासुरवरपरिवारम् ६॥ रासे हरिमिह
विशदकदम्बतले मिलितं कलिकलुषभयं शमयन्तम् ।
मामपि किमपि तरङ्गदनङ्गदृशा मनसा रमयन्तम् ॥७॥ रासे हरिमिह ...
श्रीजयदेवभणितमतिसुन्दरमोहनमधुरिपुरूपम् ।
हरिचरणस्मरणं प्रति सम्प्रति पुण्यवतामनुरूपम् ॥८॥ रासे हरिमिह ...

अनुवाद

                       सञ्चरदधर-सुधा-मधुर-ध्वनि-मुखरित-मोहन-वंशं

बलित-दृगञ्चल-चञ्चल-मौलि-कपोल-विलोल-वतंसम्र।
रासे हरिमिह विहित-विलासं
स्मरति मनो मम कृत-परिहासम् ॥१॥ध्रुवम्॥

अनुवाद- सखि, कैसी आश्चर्य की बात है कि इस शारदीय रासोत्सव में श्रीकृष्ण मुझे छोड़कर अन्य कामिनियों के साथ कौतुक आमोद में विलास कर रहे हैं। फिर भी मेरा मन उनका पुन: पुन: स्मरण कर रहा है। वे सञ्चरणशील अपने मुखामृत को अपने करकमल में स्थित वेणु में भरकर फुत्कार के साथ सुमधुर मुखर स्वरों में बजा रहे हैं, अपांग-भंगी के द्वारा अपने मणिमय शिरोभूषण को चञ्चलता प्रदान कर रहे हैं, उनके कानों के आभूषण कपोल देश में दोलायमान हो रहे हैं, उनके इस श्याम रूप का, उनके हास-परिहास का मुझे बारम्बार स्मरण हो रहा है ॥1॥

चन्द्रक-चारु-मयूर-शिखण्डक-मण्डल-वलयित-केशं।
प्रचुर-पुरन्दर-धनुरनुरञ्जित-मेदुर-मुदिर-सुवेशं
रासे हरिमिह ... ... ॥२॥

अनुवाद- अर्द्धचन्द्रकार से सुशोभित अति मनोहर मयूर-पिच्छ से वेष्टित केश वाले तथा प्रचुर मात्र में इन्द्रधनुषों से अनुरञ्जित नवीन जलधर पटल के समान शोभा धारण करने वाले श्रीकृष्ण का मुझे अधिक स्मरण हो रहा है।

गोप-कदम्ब-नितम्बवती-मुख-चुम्बन-लम्भित-लोभं।
बन्धुजीव-मधुराधर-पल्लवमुल्लसित-स्मित-शोभम्
रासे हरिमिह ... ... ॥३॥

अनुवाद- गोपललनाओं के मुखकमल का चुम्बन करने की अभिलाषा से इस अनंग उत्सव में अपने मुख को झुकाये हुए, उनका सुकुमार अधर पल्लव बन्धुक कुसुमवत् मनोहारी अरुण वर्णीय हो रहा है, स्फूर्त्तियुक्त मन्द-मुस्कान की अपूर्व शोभा उनके सुन्दर मुखमण्डल में विस्तार प्राप्त कर रही है, ऐसे उन श्रीकृष्ण का मुझे अति स्मरण हो रहा है।

विपुल-पुलक-भुज-पल्लव-वलयित-वल्लव-युवति-सहंस्त्र।
कर-चरणोरसि-मणिगण-भूषण-किरण-विभिन्न-तमिस्त्रं-
रासे हरिमिह ... ... ॥४॥

अनुवाद- अतिशय रोमाञ्च से परिप्लुत होकर अपने सुकोमल भुज-पल्लव के द्वारा हजारों-हजारों गोप-युवतियों को समालिंगित करने वाले एवं कर, चरण और वक्षस्थल में ग्रथित मणिमय आभूषणों की किरणों से दिशाओं को आलोकित करने वाले श्रीकृष्ण का मुझे स्मरण हो रहा है।

जलद-पटल-बलदिन्दु-विनिन्दक-चन्दन-तिलक-ललाटं।
पीन-पयोधर-परिसर-मर्दन-निर्दय-हृदय-कवाटम्-
रासे हरिमिह ... ... ॥५॥

अनुवाद- अपने ललाट में मनोहर चन्दन के तिलक को धारणकर नवीन जलद मण्डल में विद्यमान चञ्चल चन्द्रमा की महती शोभा को पराभूत कर अनिर्वचनीय सुषमा को धारण करने वाले एवं वर युवतियों के पीन पयोधरों के अमूल्य प्रान्त भाग को अपने सुविशाल सुदृढ़ वक्ष:स्थल से निपीड़ित करने में सतत अनुरक्त कवाटमय (किवाड़ स्वरूप) निर्दय-हृदय श्रीकृष्ण का मुझे बार-बार स्मरण हो रहा है।

मणिमय-मकर मनोहर-कुण्डल-मण्डित-गण्डमुदारं।
पीतवसन मनुगत-मुनि-मनुज-सुरासुरवर-परिवारं-
रासे हरिमिह ... ... ॥६॥

अनुवाद- जिनके कपोल-युगल मणिमय मनोहर मकराकृति कुण्डलों के द्वारा सुशोभित हो रहे हैं, जिन्होंने कामिनी जनों के मनोभिलाष को पूर्ण करने में महान उदार भाव अर्थात दक्षिण नायकत्व को धारण किया है, जिन पीताम्बरधारी श्रीकृष्ण ने अपनी माधुरी का विस्तार कर सुर, असुरमुनि, मनुष्य आदि अपने श्रेष्ठ परिवार को प्रेमरस में सराबोर कर दिया है, उन श्रीकृष्ण का मुझे बरबस ही स्मरण हो रहा है।

विशद-कदम्बतले मिलितं कलि-कलुषभयं शमयन्तं
मामपि किमपि तरंग दन दृशा मनसा रमयन्तं-
रासे हरिमिह ... ... ॥७॥

अनुवाद- विशाल एवं सुविकसित कदम्ब वृक्ष के नीचे समागत होकर मेरी अपेक्षा में प्रतीक्षा करने वाले विविध प्रकार के आश्वासनयुक्त चाटुवचनों के द्वारा विच्छेद भय को सम्यक् रूप से अपनयन (दूरीभूत) करने वाले प्रबलतर अनंग रस के द्वारा चंचल नेत्रों से तथा नितान्त स्पृहायुक्त मानस में मेरे साथ मन-ही-मन रमण करने वाले श्रीकृष्ण का स्मरण कर मेरा हृदय विकल हो रहा है।

श्रीजयदेव-भणितमतिसुन्दर-मोहन-मधुरिपु-रूपं।
हरि-चरण-स्मरणं संप्रति पुण्यवतामनुरूपं
रासे हरिमिह ... ... ॥८॥

अनुवादश्रीजयदेव कवि ने सम्प्रति हरिचरण स्मृतिरूप इस काव्य को भगवद्-भक्तिमान पुण्यशाली पुरुषों के लिए प्रस्तुत किया है, जिसमें श्रीकृष्ण के अतिशय सुन्दर मोहन रूप का वर्णन हुआ है। इसका आस्वादन मुख्यरस के आश्रय में रहकर ही किया जाना चाहिये।

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