गुरुवार, 16 सितंबर 2021

सा विरहे तव दीना.../ महाकवि जयदेव / अष्टपदी- ८ / प्रस्तुति : विदुषी गगन बद्रीनाथ / स्वर : विद्वान श्री के. हरिप्रसाद

 https://youtu.be/1kdkwPv0zXg  

इस वीडियो में अष्टपदी के केवल प्रथम एवं सप्तम श्लोक का प्रस्तुतीकरण हुआ है। 
श्लोक के शब्दों और अर्थ के साथ सिद्ध नृत्यांगना द्वारा भावों का प्रस्तुतीकरण दर्शनीय है। 

गीत गोविन्दम् - महाकवि जयदेव कृत 

चतुर्थ: सर्ग:

स्निग्ध-मधुसूदन:

गीतम् - ८ 

यमुना-तीर-वानीर-निकुञ्जे मन्दमास्थितम्।
प्राह-प्रेम-भरोद्रभ्रान्तं माधवं राधिका-सखी ॥१॥

अनुवादयमुना के तट पर स्थित वेतसी के निकुञ्ज में श्रीराधाप्रेम में विमुग्ध 
होकर विषण्ण (विषाद) चित्त से बैठे हुए श्रीकृष्ण से श्रीराधा की प्रिय सखी 
कहने लगी।...

On the banks of Yamuna, in the forest among the dense 
plants where Madhava was reeling under ardent love, 
Radha’s sakhi (friend) spoke thus :

निन्दति चन्दनमिन्दुकिरणमनु विन्दति खेदमधीरम् । 
व्यालनिलयमिलनेन गरलमिव कलयति मलयसमीरम् ॥
सा विरहे तव दीना...
 माधव मनसिजविशिखभयादिव भावनया त्वयि लीना ॥१॥

अनुवाद- हे माधव! वह श्रीराधा आपके विरह में कातर होकर मदन-बाण के 
वर्षण के भय से भीत होकर उस मन्द-सन्ताप की शान्ति के लिए ध्यान-योग 
के द्वारा आप में निमग्न होकर आपके शरणागत हुई हैं। आप से विच्युत होकर 
वह चन्दन को विनिन्दित करती हैं, चन्द्र-किरणों को देखकर उनकी देह दग्ध 
होने लगती है, मलय-समीरण भी उसके अंगो में सन्ताप बढ़ा रहा है। विषधर 
सर्पों से परिवेष्टित चन्दन वृक्षों से प्रवाहित फुत्कार-मिश्रित होने के कारण 
मलय-समीर को भी गरल समान मान रही हैं।

“O Madhava! Radha is experiencing intense suffering in 
separation from you. She is so afraid of the incessant rain 
of Madana’s (Cupid's arrows that she has resorted to 
dhyna-yoga to find relief from this slow-burning fire of 
distress. She has unconditionally surrendered to you and 
now she is completely immersed in you by the practice of 
meditation. In your absence, even the rays of the moon, 
she feels as it is burning her. The Malaya breeze with 
sandalwood fragrance, increases her pain of separation.”

ध्यान-लयेन पुर: परिकल्प्य भवन्तमतीव दुरापम्।
विलपति हसति विषीदति रोदिति चञ्चति मुञ्चति तापम्॥
सा विरहे तव दीना... ॥७॥

अनुवाद- श्रीराधा तुम्हारे ध्यान में लीन होकर तुम्हें प्रत्यक्ष रूप में कल्पित करके 
विच्छेद यन्त्रणा से कभी विलाप करती हैं, कभी हर्ष प्रकाशित करती हैं तो 
कभी रोती हैं और कभी स्फूर्त्ति में आलिंगित हो सन्ताप का परित्याग करती हैं।

"With a single-minded concentration she is envisioning you, who are a 
highly inaccessible one to others, in her fore in the sketched picture and 
then she snaps, sneers, sinks, sobs, strays, and simmers down...

गीतम् - ८ (सम्पूर्ण)

॥ चतुर्थः सर्गः ॥
॥ स्निग्धमधुसूदनः ॥

यमुनातीरवानीरनिकुञ्जे मन्दमास्थितम् ।
प्राह प्रेमभरोद्भ्रान्तं माधवं राधिकासखी ॥ 25 ॥

॥ गीतं 8 ॥

निन्दति चन्दनमिन्दुकिरणमनु विन्दति खेदमधीरम् ।
व्यालनिलयमिलनेन गरलमिव कलयति मलयसमीरम् ॥
सा विरहे तव दीना माधव मनसिजविशिखभयादिव भावनया त्वयि लीना ॥ 1 ॥

अविरलनिपतितमदनशरादिव भवदवनाय विशालम् ।
स्वहृदयर्मणी वर्म करोति सजलनलिनीदलजालम् ॥ 2 ॥

कुसुमविशिखशरतल्पमनल्पविलासकलाकमनीयम् ।
व्रतमिव तव परिरम्भसुखाय करोति कुसुमशयनीयम् ॥ 3 ॥

वहति च गलितविलोचनजलभरमाननकमलमुदारम् ।
विधुमिव विकटविधुन्तुददन्तदलनगलितामृतधारम् ॥ 4 ॥

विलिखति रहसि कुरङ्गमदेन भवन्तमसमशरभूतम् ।
प्रणमति मकरमधो विनिधाय करे च शरं नवचूतम् ॥ 5 ॥

प्रतिपदमिदमपि निगतति माधव तव चरणे पतिताहम् ।
त्वयि विमुखे मयि सपदि सुधानिधिरपि तनुते तनुदाहम् ॥ 6 ॥

ध्यानलयेन पुरः परिकल्प्य भवन्तमतीव दुरापम् ।
विलपति हसति विषीदति रोदिति चञ्चति मुञ्चति तापम् ॥ 7 ॥

श्रीजयदेवभणितमिदमधिकं यदि मनसा नटनीयम् ।
हरिविरहाकुलबल्लवयुवतिसखीवचनं पठनीयम् ॥ 8 ॥

आवासो विपिनायते प्रियसखीमालापि जालायते तापोऽपि श्वसितेन दावदहनज्वालाकलापायते ।
सापि त्वद्विरहेण हन्त हरिणीरूपायते हा कथं कन्दर्पोऽपि यमायते विरचयञ्शार्दूलविक्रीडितम् ॥ 26 ॥

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