अर्थ : मेघ यानी बादल ज़ोर ज़ोर से गरज रहें हैं, बरस रहे हैं मण्डूक यानी मेंडक बाहर आ कर इस बारिश में "बक बक" सी अपनी मधुर ध्वनी चारों ओर फैला रहे हैं विद्युत ज्योति यानी बिजलियाँ अपनी चमक धमक से इस द्रश्य को सुशोभित कर रही हैं और एसे ही भव्य वातावरण में बाल गोपाल कृष्ण अपनी बचपन की लीलाएँ कर रहे हैं।
कैसे सुकून पाऊँ तुझे देखने के बाद
अब क्या ग़ज़ल सुनाऊं तुझे देखने के बाद
आवाज़ दे रही है मेरी ज़िन्दगी मुझे
जाऊं के या न जाऊं तुझे देखने के बाद
तेरी निगाह-ऐ-मस्त ने मख़मूर कर दिया
क्या मैकदे को जाऊं तुझे देखने के बाद
नज़रों में ताब-ऐ-दीद ही बाक़ी नही रही
किस से नज़र मिलाऊँ तुझे देखने के बाद
आरती कीजे हनुमान लला की। दुष्ट दलन रघुनाथ कला की ।। जाके बल से गिरिवर कांपे । रोग दोष जाके निकट ना झाँके ।। अंजनि पुत्र महा बलदाई । संतन के प्रभु सदा सहाई ।। दे बीरा रघुनाथ पठाए । लंका जारि सिया सुधि लाये ।। लंका सो कोट समुद्र सी खाई । जात पवन सुत बार ना लायी ।। लंका जारि असुर संघारे । सियाराम जी के काज संवारे ।। लक्षमण मुर्छित पड़े सकारे । लाय सजीवन प्राण उबारे ।। पैठि पताल तोरि जमकारे । अहिरावन की भुजा उखारे ।। बाएं भुजा असुर दल मारे । दहिने भुजा संत जन तारे ।। सुर नर मुनि आरती उतारे । जय जय जय हनुमान उचारे ।। कंचन थाल कपूर लौ छाई । आरती करत अंजना माई ।। जो हनुमान जी की आरती गावे । बसि बैकुंठ परमपद पावे ।।
I comfort him and I spoil him Or He tells me I've changed on him. I become upset, my temper rises But all He cares about is How to Please Him.
Go and Tell Him that I am also sometimes in moods. One time I am upset, One Time Im ready to give him my eyes. Who out of us is at there best at all times. He makes me tired, and makes me want to pull out my eyes.
If I get upset from him and I be the bigger person He says I am ignoring his feelings and he takes a stand And If I explain to Him he says Im accusing Him. And continues to make me feel 100 times guilty.
I am changing His mind is so small confused my heart with him But I love him so much. And that is what made me patient with him so long
English Translteration of Arabic Lyrics
Ya tabtab
Wadalla
Yay ullanat ghayar taliih
Anaz 'al awalah
Mah kullihamuz zayardi
Ya tabtab wa dalla
Yay ullanat ghayar taleih
Anaz 'al awalah
Mah kullihamuz zayardi
Ululu tana fardu sa'at fe halah
Ma rraza 'al marrat belu ayni
Min fini al hal kullil aw 'at
Bi taabmi aw talla 'ayni
Ululu tana fardu sa'at fe halah
Ma rraza 'al marrat belu ayni
Min fini al hal kullil aw 'at
Bi taabmi aw talla 'ayni
Ya tabtab wa dalla
Yay ullanat ghayar taliih
Anaz 'al awalah
Mah kullihamuz zayardi
Lawaz'al minnu wa assalye'ul
Ba'assar fi haq uu yakhod jam
Ulawafah hemu, ye'ul baslemu
Ifdzal yihat sisnim midzan
Lawaz'al minnu wa assalye'ul
Ba'assar fi haq uu yakhod jam
Ulawafah hemu, ye'ul baslemu
Ifdzal yihat sisnim midzan
Ululu tana fardu sa'at fe halah
Ma rraza 'al marrat belu ayni
Min fini al hal kullil aw 'at
Bi taabmi aw talla 'ayni
Ululu tana fardu sa'at fe halah
Ma rraza 'al marrat belu ayni
Min fini al hal kullil aw 'at
Bi taabmi aw talla 'ayni
Ya tabtab wa dalla
Yay ullanat ghayar taliih
Anaz 'al awalah
Mah kullihamuz zaLyardi
Anal batghayyar walla da'al lu
Sughayar hayar albi ma'aa
Wa hubbunil awi, bamut fee awi
Wo talli safarni 'alla hawa
Analy batghayyar walla da'al lu
Sughayar hayar albi ma'aa
Wa hubbunil awi, bamut fee awi
Wo talli safarni 'alla hawa
Ululu tana fardu sa'at fe halah
Ma rraza 'al marrat belu ayni
Min fini al hal kullil aw 'at
Bi taabmi aw talla 'ayni
Ululu tana fardu sa'at fe halah
Ma rraza 'al marrat belu ayni
Min fini al hal kullil aw 'at
Bi taabmi aw talla 'ayni
Ya tabtab wa dalla
Yay ullanat ghayar taliih
Anaz 'al awalah
Mah kullihamuz zayardi
Ya tabtab wa dalla
Yay ullanat ghayar taliih
Anaz 'al awalah
Mah kullihamuz zayardi
तस्मिन्नद्रौ कतिचिदबलाविप्रयुक्त: स कामी, नीत्वा मासान्कनकवलयभ्रंशरिक्तप्रकोष्ठ: । आषाढस्य प्रथम दिवसे मेघमाश्लिष्टसानुं, वप्रक्रीडापरिणतगजप्रेक्षणीयं ददर्श ।
पूर्वमेघ श्लोक -२
अर्थ :विछोह में उस कामी यक्ष ने उस पर्वत पर कई मास बिता दिए। उसकी कलाई सुनहले कंगन के खिसक जाने से सूनी दीखने लगी। आषाढ़ मास के पहले दिन पहाड़ की चोटी पर झुके हुए मेघ को उसने देखा। ऐसा जान पड़ा जैसे ढूसा मारने में मगन कोई हाथी हो।
ललित आलेख : शैलेश कुमार जैमन
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कुबेर के उस सेवक (हेममाली) यक्ष की नयी-नयी शादी हुई थी, सबेरे उठने में देर हो जाती थी | इसलिए वह रात्रि को ही कमल के पुष्प तोड़ कर रख लेता और जब कुबेर शिव-पूजा पर बैठते तब फूलों की टोकरी पहुंचा देता । एक दिन कुबेर ने कमल पुष्पों में भ्रमर को देखा, कुबेर को संदेह हुआ, उसने यक्ष से पूछा, ये पुष्प तुमने कब तोड़े थे ? सच बात सामने आ गयी ! कुबेर ने यक्ष को एक साल का निर्वासन-दंड़ दिया। यक्ष रामगिरि पर्वत पर निर्वासन के दिन व्यतीत कर रहा था ! प्रिया के वियोग-दु:ख के कारण यक्ष की कलाई में से सोने के कड़े शिथिल हो कर गिर गये और उसकी कलाई सूनी हो गयी थी । आषाढ़ महिने के पहले दिन उसने देखा कि पहाड़ की चोटी पर बादल इस प्रकार से सटे हुए [पहाड़ का आलिंगन करते हुए] क्रीडा कर रहे हैं जैसे कोई हाथी टीले से मिट्टी उखाड़ने [ढूसा मारने] का खेल करता है ।
बाबा नागार्जुन की एक कविता सन्दर्भ : मेघदूत [महाकवि कालिदास ] रोया यक्ष कि तुम रोये थे ?
“वर्षा ऋतु की स्निग्ध भूमिका प्रथमदिवस आषाढ-मास का देख गगन में श्याम घनघटा विधुर यक्ष का मन जब उचटा खडे-खडे तब हाथ जोड़कर चित्रकूट के सुभग शिखर पर उस बेचारे ने भेजा था, जिनके ही द्वारा संदेशा उन पुष्करावर्त मेघों का साथी बन कर उड़ने वाले कालिदास ! सच सच बतलाना पर-पीडा से पूर-पूर हो थक-थक कर और चूर-चूर हो अमल-धवल गिरि के शिखरों पर प्रियवर ! तुम कब तक सोये थे ? रोया यक्ष कि तुम रोये थे ? कालिदास सच-सच बतलाना ! …….बाबा नागार्जुन ________
जल का एक पर्याय है वारि । वारि में “ज” प्रत्यय जुड़ने पर वह “पद्म” बन जाता है और “द” प्रत्यय जुड़ने पर “मेघ” । “वारिज” यानी कमल, “वारिद” यानी मेघ । जल का एक अन्य पर्याय नीर है, उसके साथ भी यही कथा – “नीरज” यानी कमल, “नीरद” यानी मेघ । स्वयं जल के साथ यही – “जलज” यानी कमल, “जलद” यानी मेघ। जल की व्यंजना में ही मेघ और पुष्प बहुत निकट हैं, मात्र एक प्रत्यय के परकोटे से पृथक । वैसे यह अकारण नहीं कि कभी-कभी हम जल को भी मेघपुष्प की तरह देखने लगें । विशेष रूप से वर्षाजल को । वास्तव में, यह केवल कवि कल्पना नहीं, सच में ही जल को “मेघपुष्प” कहा गया है । “अमरकोश” में जल के लिए कोई सत्ताइस संज्ञाएं हैं, उन्हीं में से एक है – मेघपुष्प ! राजस्थान में यही “मेघपुहुप” हो जाता है। “मेघमोती” सुना था, किंतु “मेघपुष्प” की कल्पना नहीं की थी । “मेघपुष्प” सुना तो “आकाश कुसुम” की कल्पना भी मन में कौंध गई ! फिर यह भी सूझा कि अगर वर्षाजल मेघपुष्प है तब तो वर्षा को वृक्ष ही कहना होगा ना ? मैं तो कहूंगा वर्षा आकाश में उगने वाला “कल्पवृक्ष” है ! “जलज” सदैव जल में होता है । किंतु जल स्वयं मेघमालाओं का पद्मपुष्प है, नील उत्पल है, देवदुन्दुभि के घोष से भरा हुआ, यहां तक कल्पना का जाना इतना सरल नहीं।
“अमरकोश” कुल पच्चीस वर्गों में विभक्त है । आप अगर इसमें मेघ के पंद्रह पर्याय खोजना चाहें तो यह स्वाभाविक ही है कि आप “वारिवर्ग” में चले जाएं । यह अनुमान लगा लेना सरल ही है ना कि वायुवेग वाले वारिद “प्रथम काण्ड” के दशम् वर्ग यानी “वारिवर्ग” में ही मिलेंगे । किंतु “अमरकोशकार” ने उन्हें उल्लेखित किया है प्रथम काण्ड के तृतीय वर्ग “दिग्वर्ग” में । किंतु ऐसा केवल इसीलिए नहीं है कि मेघ “दिग्विजयी” होते हैं । ऐसा इसलिए है, कि पंचमहाभूतों में आकाश को “दिक्” का ही पर्याय माना गया है । अस्तु आकाश के जितने भी पदार्थ होंगे, वे “दिग्वर्ग” में ही होंगे। “अमरकोश” में मेघों के पंद्रह पर्याय हैं, यथा – तड़ित्वान, धूमयोनि, अभ्रम्, स्तनयित्नु । मेघों के नाना नामरूप । मेघमाला कहलाती है कादम्बिनी । विद्युल्लता कहलाई है शम्पा और शतह्रदा ! धारासार वर्षा को कहा है धारासम्पात् । धरती के तप और ताप से ही तो आकाश में धूममेघ का तोरण बंधता है। आषाढ़ के मास में, आर्द्रा नक्षत्र लगते ही, जब कुरबक के पुष्प झड़ जाते हैं और कांस के फूल खिलने में वर्षान्त तक का समय होता है, तब दिक् के देवता आकाश से मेघपुष्पों की वर्षा करते हैं । यह वर्षा नहीं है, यह वंदनवार है ! ऋतुओं के देवता ने अपने सबसे सुंदर मेघपुष्पों से चुनकर आपके लिए यह तोरण बांधा है । ज्येष्ठ का आयुफल गाछ पर ही गल गया, अब यह आषाढ़ के आयुष्मान दिवस हैं, इनका अपने भीतर संजोई नमी के पुष्पों से अभिवादन करें । मेघपुष्पों को अपने मन के कुसुमों से मिलने दें । आख़िर फूल ही तो फूल का मर्म पहचानेंगे।
शैलेश कुमार जैमन प्राध्यापक (साहित्यविभाग) राजकीय महाराज आचार्य संस्कृत महाविद्यालय, जयपुर
इस स्तोत्र के ऋषि ब्रह्मा हैं, छंद गायत्री है, देवता पञ्चमुख-विराट-हनुमानजी हैं, ह्रीम् बीज है, श्रीम् शक्ति है, क्रौम् कीलक है, क्रूम् कवच है और ‘क्रैम् अस्त्राय फट्’
पाँच मुख रहनेवाले, प्रचंड विशालकाय ऐसे, तीन गुना पाँच यानी पंद्रह नेत्र (त्रि-पञ्च-नयन) रहने वाले, ऐसे ये पञ्चमुख-हनुमानजी हैं। दस हाथों से युक्त, सकल काम एवं अर्थ इन पुरुषार्थों को सिद्ध कर के देने वाले ऐसे ये (पञ्चमुख-हनुमानजी) हैं।
इनका पूर्व दिशा का अथवा पूर्व दिशा की ओर देखने वाला जो मुख है, वह वानरमुख है, जिसकी प्रभा (तेज) कोटि (करोडों) सूर्यों के जितनी है। उनका यह मुख कराल (कराल = भयकारक) दाढ़ें (दंष्ट्रा) रहने वाला मुख है। भ्रुकुटि यानी भौंह और कुटिल यानी टेढी। भौंह टेढी करके देखने वाला ऐसा यह मुख है।
वक्त्र यानी चेहरा, मुख, वदन। इनका दक्षिण दिशा का अथवा दक्षिण दिशा की तरफ देखने वाला जो मुख है, वह नारसिंहमुख है और वह बहुत ही अद्भुत है। अत्यधिक उग्र ऐसा तेज रहने वाला शरीर (वपु = शरीर) जिनका है, ऐसे हनुमानजी (अत्युग्रतेजोवपुषं) का यह मुख भय उत्पन्न करने वाला (भीषणं) और भय नष्ट करने वाला मुख है। (हनुमानजी का यह मुख एक ही समय पर बुरे लोगों के लिए भीषण और भक्तों के लिए भयनाशक है।)
पश्चिम दिशा का अथवा पश्चिम दिशा में देखने वाला जो मुख है, वह गरुडमुख है। वह गरुडमुख वक्रतुण्ड है। साथ ही वह मुख महाबल यानी बहुत ही सामर्थ्यवान है। सारे नागों का प्रशमन करने वाला, विष और भूत आदि का (विषबाधा, भूतबाधा आदि बाधाओं का) कृन्तन करने वाला (उन्हें पूरी तरह नष्ट करने वाला) ऐसा यह (पञ्चमुख-हनुमानजी का) गरुडानन है।
उत्तर दिशा का अथवा उत्तर दिशा में देखने वाला मुख यह वराहमुख है। वह कृष्ण वर्ण का (काले रंग का) है, तेजस्वी है, जिसे आकाश की उपमा दे सकते हैं ऐसा है। पातालनिवासियों का प्रमुख रहने वाला वेताल और भूलोक में कष्ट पहुँचाने वालीं बीमारियों का प्रमुख रहने वाला ’ज्वर’ इनका कृन्तन करने वाला, इन्हें समूल नष्ट करने वाला ऐसा यह उत्तर दिशा का वराहमुख है।
ऊर्ध्व दिशा का या ऊर्ध्व दिशा में देखने वाला जो मुख है, वह अश्वमुख है। हय यानी घोड़ा = अश्व। यह दानवों का नाश करने वाला ऐसा श्रेष्ठ मुख है। हे विप्रेन्द्र (श्रेष्ठ गायत्री उपासक), तारकाख्य नाम के प्रचंड असुर को जिसने नष्ट किया है, ऐसा यह अश्वमुख है। सारे शत्रुओं का हरण करने वाले श्रेष्ठ पञ्चमुख-हनुमानजी की चरणों में शरण रहो। रुद्र और दयानिधि ऐसे दोनों रूप धारण करनेवाले हनुमानजी का ध्यान करें। (अब गरुडजी पञ्चमुख-हनुमानजी के दस आयुधों के बारे में बता रहे हैं।)
(पञ्चमुख-हनुमानजी के हाथों में) तलवार, त्रिशूल, खट्वाङ्ग नाम का आयुध, पाश, अंकुश, पर्वत हैं। साथ ही, मुष्टि नाम का आयुध, कौमोदकी गदा भी हैं। पञ्चमुख-हनुमानजी ने एक हाथ में वृक्ष और एक हाथ में कमंडलु भी धारण किया है। पञ्चमुख-हनुमानजी ने भिंदिपाल धारण किया है। भिंदिपाल यह लोहे से बना विलक्षण अस्त्र है। इसे फेंककर मारा जाता है, साथ ही इसमें से बाण भी चला सकते हैं। पञ्चमुख-हनुमान जी का दसवाँ आयुध है ‘ज्ञानमुद्रा’। ऐसे दस आयुध और इन आयुधों के जाल उन्होंने धारण किये हैं। ऐसे इन मुनिपुंगव (मुनिश्रेष्ठ) पञ्चमुख-हनुमानजी की मैं (गरुड) स्वयं भक्ति करता हूँ।
वे प्रेतासन पर बैठे हैं (प्रेतासनोपविष्ट) (उपविष्ट का अर्थ है बैठे हुए)। वे सारे अलंकारों से भूषित हैं (आभरण यानी अलंकार, गहने)। सारे अलंकारों से सुशोभित दिखनेवाले (सारे अलंकारों से = सकल ऐश्वर्यों से विभूषित) ऐसे वे हैं। दिव्य माला एवं दिव्य वस्त्र (अंबर) को उन्होंने धारण किया है। साथ ही दिव्यगंध का लेप उन्होंने शरीर पर लगाया है।
सकल आश्चर्यों से भरे हुए, आश्चर्यमय ऐसे ये हमारे भगवान हैं। विश्व में सर्वत्र जिन्होंने मुख किया है, ऐसे ये पञ्चमुख-हनुमानजी हैं। ऐसे ये पॉंच मुख रहने वाले (पञ्चास्य), अच्युत और अनेक अद्भुत वर्णयुक्त (रंगयुक्त) मुख रहने वाले हैं। शश यानी खरगोश। शश जिसकी गोद (अंक) में है ऐसा चन्द्र यानी शशांक। ऐसे शशांक को यानी चन्द्रमा को जिन्होंने माथे (शिखर) पर धारण किया है, ऐसे ये (शशांकशिखर) हनुमानजी हैं। कपियों में सर्वश्रेष्ठ रहने वाले ऐसे ये हनुमानजी हैं। पीताम्बर आदि, एवं मुकुट से जिनका अंग सुशोभित है, ऐसे ये हैं। पिङ्गाक्षं, आद्यम् और अनिशं ये तीन शब्द यहाँ पर हैं। गुलाबी आभायुक्त पीतवर्ण के जिनके अक्ष हैं (इंद्रिय/आँखें) ऐसे ये हैं। ये आद्य यानी प्रथम हैं। ये अनिश हैं यानी निरंतर हैं अर्थात् शाश्वत हैं। ऐसे इन पञ्चमुख-हनुमानजी का हम मनःपूर्वक स्मरण करते हैं।
वानरश्रेष्ठ ऐसे ये अत्यधिक उत्साहपूर्ण हनुमानजी सारे शत्रुओं का नि:पात करनेवाले हैं। हे श्रीमन् पञ्चमुख-हनुमानजी, मेरे शत्रुओं का संहार कीजिए। मेरी रक्षा कीजिए। संकट में से मेरा उद्धार कीजिए।
ॐ हरिमर्कट मर्कट मन्त्रमिदं परिलिख्यति लिख्यति वामतले। यदि नश्यति नश्यति शत्रुकुलं यदि मुञ्चति मुञ्चति वामलता॥ ॐ हरिमर्कटाय स्वाहा।
महाप्राण हनुमानजी के बाँये पैर के तलवे के नीचे ‘ॐ हरिमर्कटाय स्वाहा’ यह जो लिखेगा, उसके केवल शत्रु का ही नहीं बल्कि शत्रुकुल का नाश हो जायेगा। वाम यह शब्द यहाँ पर वाममार्ग का यानी कुमार्ग का प्रतिनिधित्व करता है। वाममार्ग पर जाने की वृत्ति, खिंचाव यानी वामलता। (जैसे कोमल-कोमलता, वैसे वामल-वामलता।) इस वामलता को यानी दुरितता को, तिमिरप्रवृत्ति को हनुमानजी समूल नष्ट कर देते हैं। अब हर एक मुख को ‘स्वाहा’ कहकर नमस्कार किया है।
दुष्प्रवृत्तियों के प्रति भयानक मुख रहने वाले (करालवदनाय), सारे भूतों का उच्छेद करने वाले दक्षिणमुख को, नरसिंहमुख को, भगवान श्री पञ्चमुख-हनुमानजी को नमस्कार।