मंगलवार, 27 अगस्त 2024

मुद्दत हुई है यार को मेहमाँ किए हुए.../ मिर्ज़ा ग़ालिब / गायन : इक़बाल बानो

  https://youtu.be/t2AYXuc7_fE 

                                         

मुद्दत हुई है यार को मेहमाँ किए हुए 
जोश-ए-क़दह से बज़्म चराग़ाँ किए हुए 

करता हूँ जम्अ' फिर जिगर-ए-लख़्त-लख़्त को 
अर्सा हुआ है दावत-ए-मिज़्गाँ किए हुए 

फिर वज़'-ए-एहतियात से रुकने लगा है दम 
बरसों हुए हैं चाक गरेबाँ किए हुए 

फिर गर्म-नाला-हा-ए-शरर-बार है नफ़स 
मुद्दत हुई है सैर-ए-चराग़ाँ किए हुए 

फिर पुर्सिश-ए-जराहत-ए-दिल को चला है इश्क़ 
सामान-ए-सद-हज़ार नमक-दाँ किए हुए 

फिर भर रहा हूँ ख़ामा-ए-मिज़्गाँ ब-ख़ून-ए-दिल 
साज़-ए-चमन तराज़ी-ए-दामाँ किए हुए 

बाहम-दिगर हुए हैं दिल ओ दीदा फिर रक़ीब 
नज़्ज़ारा ओ ख़याल का सामाँ किए हुए 

दिल फिर तवाफ़-ए-कू-ए-मलामत को जाए है 
पिंदार का सनम-कदा वीराँ किए हुए
 
फिर शौक़ कर रहा है ख़रीदार की तलब 
अर्ज़-ए-मता-ए-अक़्ल-ओ-दिल-ओ-जाँ किए हुए 

दौड़े है फिर हर एक गुल-ओ-लाला पर ख़याल 
सद-गुलसिताँ निगाह का सामाँ किए हुए 

फिर चाहता हूँ नामा-ए-दिलदार खोलना 
जाँ नज़्र-ए-दिल-फ़रेबी-ए-उनवाँ किए हुए 

माँगे है फिर किसी को लब-ए-बाम पर हवस 
ज़ुल्फ़-ए-सियाह रुख़ पे परेशाँ किए हुए 

चाहे है फिर किसी को मुक़ाबिल में आरज़ू 
सुरमे से तेज़ दश्ना-ए-मिज़्गाँ किए हुए 

इक नौ-बहार-ए-नाज़ को ताके है फिर निगाह 
चेहरा फ़रोग़-ए-मय से गुलिस्ताँ किए हुए 

फिर जी में है कि दर पे किसी के पड़े रहें 
सर ज़ेर-बार-ए-मिन्नत-ए-दरबाँ किए हुए 

जी ढूँडता है फिर वही फ़ुर्सत कि रात दिन 
बैठे रहें तसव्वुर-ए-जानाँ किए हुए 

'ग़ालिब' हमें न छेड़ कि फिर जोश-ए-अश्क से 
बैठे हैं हम तहय्या-ए-तूफ़ाँ किए हुए



पूरी ग़ज़ल, अर्थ के साथ, यहाँ देखें मीर-ओ-ग़ालिब

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