ग़ज़ल
- अरुण मिश्र
सिवा हमारे, फरिश्ता न कोई आयेगा।
हमारी डूबती कश्ती को जो बचायेगा।।
सुनहरी फ़स्ल की उमीद किस बिना पे करें।
बाड़ का बॉस ही , जब बढ़ के खेत खायेगा।।
करो ये ख़ुद से अहद, क़ामयाब होंगे हम।
न हारे मन, तो हमें कौन फिर हरायेगा??
जले मशाल, तभी ख़त्म अँधेरा होगा।
हमीं में होगा कोई, जो इसे जलायेगा।।
हैं राह ताक रहे लोग, रहनुमा के लिये।
सही दिशा में, कोई तो क़दम बढ़ायेगा।।
हो जिसके हाथ को दायें, न यकीं बायें पर।
उससे उम्मीद हो कैसे, वजन उठायेगा??
‘अरुन’ शमा की तरह,खुद को जलाओ पहले।
फिर तो परवानों का, तय है, हुज़ूम आयेगा।।
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shuruwat khud se karni chahiye ....
जवाब देंहटाएंbahut khub ji
mere yaha bhi padhare
http://anubhutiras.blogspot.com
प्रिय अजय जी, धन्यवाद | 'अनुभूति -रस' का आस्वादन किया | आपकी अनुभूतियाँ सरस, चिंतन सुस्पष्ट तथा लेखन सुन्दर है | शुभकामनायें !
जवाब देंहटाएं- अरुण मिश्र.