ग़ज़ल
- अरुण मिश्र
जो मेरी बात को, यूँ लोगे हलके।
बहुत पछताओगे फिर, हाथ मल के।।
बहुत पछताओगे फिर, हाथ मल के।।
तुम्हारी राह अँगारों भरी थी।
मैं फिर भी आया नंगे पॉव चल के।।
अभी वो इस तरफ से कौन गुज़रा?
कि, महफ़िल रह गई पहलू बदल के।।
कहॉ हो मेरे सूरज, चॉद, तारों?
उफ़क से क्यूँ नहीं मिटते धुंधलके??
कमल-दल पर सजीं शबनम की बूँदें।
जो मोती ऑख से, गालों पे ढलके।।
शज़र की ओट अब, है चॉद छुपता।
चला तो आया बदली से निकल के।।
सुबह से शाम तक, दर पे हूँ तेरे।
कभी तो आओगे साहब टहल के??
‘अरुन’ धोखे बहुत, राहे-वफ़ा में।
यहॉ चलना जरा, बाबू सॅभल के।।
*
आदरणीय अरुण मिश्र जी
जवाब देंहटाएंसादर अभिवादन !
एक बार और आपकी अच्छी रचना हमेशा की तरह
कमल-दल पर सजीं शबनम की बूँदें।
जो मोती ऑख से, गालों पे ढलके।।
यह शे'र बहुत प्यारा है । कम कोई नहीं …
हार्दिक बधाई और मंगलकामनाएं !
शुभकामनाओं सहित
- राजेन्द्र स्वर्णकार
भाई साहब! आपके ब्लाग पर आना बार-बार होता था परन्तु तकनीकी गड़बड़ी के कारण टिप्पणी नहीं कर पा रहा था। अर्से बाद उससे छुटकारा मिला है। आपकी रचना सोए हुए लोगों को जगाने वाली और उनमें हौसला भरने वाली है। सराहनीय लेखन.....बधाई स्वीकारें।
जवाब देंहटाएंसद्भावी - डॉ० डंडा लखनवी
प्रिय राजेंद्र जी, आपकी सदाशयता से भरी टिप्पणी मुझे हमेशा नयी ऊर्जा देती है|आभार एवं शुभकामनायें |
जवाब देंहटाएं-अरुण मिश्र.
प्रिय डंडा जी, आपका यह स्नेह ही मेरा सम्बल है|आशा है यह सदैव मुझे मिलता रहेगा|आभार एवं शुभकामनायें |
जवाब देंहटाएं-अरुण मिश्र.