ग़ज़ल
-अरुण मिश्र
जब मुक़द्दर में लिखीं, हमदम हों ये बेचैनियां।
हों शरीक़े - जां, शरीक़े - ग़म हों ये बेचैनियां।।
दूसरों के दर्द को , महसूस करने की सिफ़त।
जिसमें हो, उसमें न क्यूँ , पैहम हों ये बेचैनियां।।
दिल को पिघलायेगी,इनकी आँच सुलगायेगी मन।
कर लो ऑखें नम, तो कुछ मद्धम हो ये बेचैनियां।।
हर सुख़न के फूल में, रोशन हों ज्यूं रंगे-शफ़क।
गुंचों पे अशआर के, शबनम हों ये बेचैनियां।।
हम इधर बेचैन हैं, तुम भी उधर बेचैन हो।
साथ बैठो तो ‘अरुन’, कुछ कम हों ये बेचैनियां।।
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