जय हे! भारत...
- अरुण मिश्र
जय हे ! भारत।
जय, जय भारत।।
उत्तर हिमगिरि है रक्षा-रत।
दक्षिण महा-उदधि नित जाग्रत।
पूरब-पश्चिम सागर लहरे।
चहुँ दिशि कीर्ति-पताका फहरे।।
श्री, मेधा, उर्जा-
निधि अक्षत।
जय हे ! भारत।
जय, जय भारत।।
गोवा तट यावत अरुणांचल।
शस्य - हरित, भारत - भू - अंचल।
अगणित सर,नद,मरु,गिरि,कानन।
जीव-वनस्पति-बहुल, सुशोभन।।
जन - गण ज्ञान-
कला अर्जन-रत।
जय हे ! भारत।
जय, जय भारत।।
शीशफूलवत् सिन्धु - श्रंखला।
नदी नर्मदा मध्य मेखला।
गंग - जमुन हैं, सुघर माल, उर।
कृष्णा - कावेरी, पग - नूपुर।।
अमृत-जल-सिंचित
भुवि, भारत।
जय हे ! भारत।
जय, जय भारत।।
भाषा, भूषा, वेश भिन्न बहु।
एक राष्ट में, देश भिन्न बहु।
सम्प्रदाय, मत तो अनेक हैं।
वर्ण भिन्न, पर हृदय एक हैं।।
है सबका स्वदेश,
प्रिय भारत।
जय हे ! भारत।
जय, जय भारत।।
राम, कृष्ण, नानक, कबीर की।
गॉधी, गौतम, महावीर की।
वीर शिवा की, गुरु गोविंद की।
गौरव - गाथा अमर हिन्द की।।
शुभ अतीत,
स्वर्णाभ भविष्यत।
जय हे ! भारत।
जय, जय भारत।।
*
आदरणीय अरुण मिश्र जी
जवाब देंहटाएंनमस्कार !
जय हे! भारत... बहुत सुंदर और श्रेष्ठ रचना के लिए शत शत नमन स्वीकार करें । पूरा गीत आपकी प्रखर लेखनी का प्रसाद बांटता प्रतीत हो रहा है ।
…और आपका लिखा अब तक जो भी काव्य पढ़ा है , आपके प्रति स्नेह और सम्मान उत्तरोतर बढ़ाने वाला है ।
ऐसा श्रेष्ठ सृजन पढ़ना भी सौभाग्य की बात है । साधु साधु !
गणतंत्र दिवस की हार्दिक बधाई और मंगलकामनाएं !
- राजेन्द्र स्वर्णकार
प्रिय राजेंद्र जी, आप सराहना करने में अतिशय उदार हैं|मैं आपकी सहृदयता से अभिभूत हूँ|आभार एवं शुभकामनायें|
जवाब देंहटाएं-अरुण मिश्र .
सहज, सटीक एवं प्रभावशाली लेखन के लिए बधाई!
जवाब देंहटाएंकृपया इसे भी पढ़िए......
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शहरीपन ज्यों-ज्यों बढ़ा, हुआ वनों का अंत।
गमलों में बैठा मिला, सिकुड़ा हुआ बसंत॥
सद्भावी - डॉ० डंडा लखनवी