बुधवार, 26 जनवरी 2011

गणतंत्र दिवस २६ जनवरी पर विशेष


जय हे! भारत... 

- अरुण मिश्र  
 

जय  हे !  भारत।    
जय, जय भारत।।            
    
        उत्तर    हिमगिरि    है   रक्षा-रत।            
        दक्षिण महा-उदधि नित जाग्रत।            
        पूरब-पश्चिम      सागर     लहरे।            
        चहुँ  दिशि  कीर्ति-पताका फहरे।।    

श्री,   मेधा,   उर्जा-     
निधि       अक्षत।    
जय  हे !   भारत।    
जय, जय भारत।।        

         गोवा    तट     यावत    अरुणांचल।        
        शस्य - हरित,  भारत - भू - अंचल।        
        अगणित सर,नद,मरु,गिरि,कानन।        
        जीव-वनस्पति-बहुल,     सुशोभन।।    

जन - गण   ज्ञान-    
कला  अर्जन-रत।    
जय  हे !   भारत।    
जय, जय भारत।।        

        शीशफूलवत्    सिन्धु - श्रंखला।        
        नदी   नर्मदा     मध्य    मेखला।        
        गंग - जमुन हैं, सुघर माल, उर।        
        कृष्णा - कावेरी,     पग - नूपुर।।    

अमृत-जल-सिंचित     
भुवि,        भारत।    
जय  हे !   भारत।    
जय, जय भारत।।
      
         भाषा,  भूषा,  वेश  भिन्न  बहु।        
         एक  राष्ट में,  देश  भिन्न  बहु।        
         सम्प्रदाय,  मत  तो  अनेक  हैं।        
         वर्ण  भिन्न, पर  हृदय  एक हैं।।    

है  सबका  स्वदेश,     
प्रिय          भारत।    
जय  हे !   भारत।    
जय, जय भारत।।        

        राम, कृष्ण, नानक,  कबीर  की।        
        गॉधी,    गौतम,    महावीर   की।        
        वीर शिवा  की,  गुरु गोविंद  की।        
        गौरव - गाथा  अमर   हिन्द की।।    

शुभ         अतीत,    
स्वर्णाभ भविष्यत।    
जय  हे !   भारत।    
जय, जय भारत।। 
                          * 

3 टिप्‍पणियां:

  1. आदरणीय अरुण मिश्र जी
    नमस्कार !

    जय हे! भारत... बहुत सुंदर और श्रेष्ठ रचना के लिए शत शत नमन स्वीकार करें । पूरा गीत आपकी प्रखर लेखनी का प्रसाद बांटता प्रतीत हो रहा है ।
    …और आपका लिखा अब तक जो भी काव्य पढ़ा है , आपके प्रति स्नेह और सम्मान उत्तरोतर बढ़ाने वाला है ।

    ऐसा श्रेष्ठ सृजन पढ़ना भी सौभाग्य की बात है । साधु साधु !

    गणतंत्र दिवस की हार्दिक बधाई और मंगलकामनाएं !

    - राजेन्द्र स्वर्णकार

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  2. प्रिय राजेंद्र जी, आप सराहना करने में अतिशय उदार हैं|मैं आपकी सहृदयता से अभिभूत हूँ|आभार एवं शुभकामनायें|
    -अरुण मिश्र .

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  3. सहज, सटीक एवं प्रभावशाली लेखन के लिए बधाई!
    कृपया इसे भी पढ़िए......
    ==============================
    शहरीपन ज्यों-ज्यों बढ़ा, हुआ वनों का अंत।
    गमलों में बैठा मिला, सिकुड़ा हुआ बसंत॥
    सद्भावी - डॉ० डंडा लखनवी

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