ग़ज़ल
-अरुण मिश्र.
बंदिशें अ'शआर की, या ज़िन्दगी की खैंच-तान।
शायरी लेती है , शायर का हमेशा इम्तहान।।
शायरी लेती है , शायर का हमेशा इम्तहान।।
तुम दरख्तों के घने साये से, ग़र निकले नहीं।
देख पाओगे नहीं , कितना खुला है आसमान।।
ऊँचे बरगद के तले, पौधा पनपता है कहीं?
हर शज़र को लाज़िमी, अपनी ज़मीं, अपना ज़हान।।
दूसरों के सुर में सुर ही, बस मिलाते मत रहो।
नन्हीं चिड़ियों तक की,होती है अलग अपनी ज़ुबान।।
घोंसले, सोने के तिनकों से नहीं बुनते हैं कुछ।
जो खुले आकाश में, भरते ‘अरून’ ऊँची उड़ान।।
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