क्या ख़ूब साँवले! हो
- अरुण मिश्र
जब चाँदनी खिली हो, और चाँद सामने हो।
देखूँ तुम्हें, न उसको, क्या ख़ूब साँवले! हो।।
भादों की बदलियाँ थीं, थी रैन भी अँधेरी।
आँगन में आ अचानक, तुम चाँद सा खिले हो।।
चितचोर हो, छलिया हो, फिर भी यकीं तुम्हीं पे।
ब्रज की दही से मीठे, तुम दूध के धुले हो।।
तुम राम हो,कान्हा हो,इस मिट्टी की ख़ुशबू हो।
हर साँस में रवां हो, अहसास में घुले हो।।
तुझ साँवरे सा उजला, देखा न ‘अरुन’ हमने।
गो - रस में छलकते हो, मक्खन में तुम सने हो।।
गो - रस में छलकते हो, मक्खन में तुम सने हो।।
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(टिप्पणी : १ सितम्बर २०१० ,जन्माष्टमी पर गत वर्ष, 'रश्मिरेख' में पूर्वप्रकाशित |)
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