- अरुण मिश्र
प्रिय !
तुम्हारी याद लेकर,
भाद्रपद के कृष्ण-घन
फिर आ गये हैं।
छा गये आकाश पर मन के
सुहासिनि !
मधुस्मृतियों के कलश
ढरका गये हैं।
हो उठा रससिक्त
फिर से, प्राण,
गत-आस्वाद लेकर।
प्रिय !
तुम्हारी याद लेकर।।
कर रहीं स्मृति फुहारें,
हृत्-पुलिन आहत।
भीगती, ठंढी हवायें,
और मर्माहत।
माँग सौदामिनि बनी,
झकझोरती अस्तित्व;
दूर, मेरी प्रेयसी,
बैठी लिये चाहत।।
कल्पनाएँ,
और भी चढ़ती गईं,
उन्माद लेकर।
प्रिय !
तुम्हारी याद लेकर।।
बीसवाँ पावस, पड़ा
मुझको बहुत भारी।
आग बरसाती घटा
हर बूँद चिनगारी।
इंद्र-धनु से
विष-बुझे शर छूटते हैं,
तोड़ देने को मुझे,
हर ओर तैय्यारी।।
मैं प्रतिक्षण
और कसता जा रहा
अवसाद लेकर।
प्रिय !
तुम्हारी याद लेकर।।
*
(टिप्पणी : लगभग ३९ साल पहले, वर्ष १९७२ में लिखी यह कविता,
काव्य-संग्रह "अंजलि भर भाव के प्रसून" में संकलित है |)
मन भावन लगी यह कविता
जवाब देंहटाएंबहुत-बहुत धन्यवाद, प्रिय अल्पना जी|
जवाब देंहटाएं-अरुण मिश्र.