ग़ज़ल
-अरुण मिश्र.
तुम न आये मेरी मय्यत पे चलो अच्छा हुआ।
सांस के संग साथ का भी सिलसिला जाता रहा॥
लोग जो रिश्तों को ले इक उम्र गफ़लत में रहे।
उनकी भी छाती हुई ठंढी , सुकूँ इसका रहा॥
जब तलक थे मंच पे , पर्दा तआल्लुक का रहा।
और तब पर्दा उठा, जब अंत में पर्दा गिरा॥
सख्श जो ख़ातिर तिरे, मुझसे सदा जलता रहा।
आज वो भी ग़मज़दा, उसका भरम टूटा हुआ॥
मैं नहीं, फिर भी 'अरुन' ज़िन्दा मेरे एहसास हैं।
बस जरा ही तो बढ़ा है , तेरा मुझसे फासला॥
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शानदार रचना
जवाब देंहटाएंबहुत-बहुत धन्यवाद, प्रिय अमित शर्मा जी|प्रतिक्रिया हेतु आपका आभारी हूँ|
जवाब देंहटाएं-अरुण मिश्र.